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गाँव

गाँव

गाँव की लाश पर, शहर कौन उगाता है,
गाँववासी खुद कब्रिस्तान चला जाता है।
रास नहीं आती उसे गाँव की हवा ताजी,
शहर की चकाचौंध को मन ललचाता है।

रह गये तन्हां, अब बूढ़े ही गाँव में,
पगडंडियां तन्हां, पीपल की छाँव में।
बैलों की जगह, जब ट्रैक्टर ने ले ली,
पशु भी तन्हां, अब अपनी ही ठाँव में।

चाहते नहीं काम, अब गाँव के बच्चे,
खेती को ठुकराते, अब गाँव के बच्चे।
तलाश है सबको, शहर में ही नौकरी,
मजदूरी को तरसते, अब गाँव के बच्चे।

गाँव खुद जा रहे, अब शहर की ओर,
पक्की सड़क, आधुनिकता की दौड़।
छोरियां बन गई, शहर की नवयौवना,
गाँव की सभ्यता, संस्कृति को छोड़।

न ही बचे हैं पनघट, न गौरी है गाँव में,
न चूल्हा कहीं दिखता, न चक्की गाँव में।
कच्चे घर गोबर से लिपे, पहचान अनुठी,
बढ़ गया है अब तो, प्रदूषण भी गाँव में।

अ कीर्ति वर्द्धन
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