सीताराम तत्त्व
अरुण कुमार उपाध्यायभगवान् श्री राम तथा सीताजी का मनुष्य तथा ब्रह्म रूप दोनों प्रकार का वर्णन रामायण में है। इसे पूर्ण रूप से समझना कठिन है, पर करपात्री जी की ’रामायण मीमांसा’ तथा अन्य स्रोतों के अनुसार कुछ चर्चा कर रहा हूं।
१. मनुष्य राम-इनका जन्म दशरथ तथा कौशल्या के पुत्र रूप में हुआ था। शृङ्गी ऋषि ने पुत्र कामेष्टि यज्ञ कराया था, पर वे किसी प्रकार से श्री राम के पिता या पिता तुल्य नहीं थे। उनका कार्य वही था जो सन्तान के जन्म या प्रसव में डाक्टर का काम होता है। उस समय पिता दशरथ जी वृद्ध थे, उनकी आयु ६७ वर्ष की थी। श्रीराम जब १५ वर्ष के थे तो विश्वामित्र उनको लेने आये थे। दशरथ जी ने कहा कि उनकी आयु ६०,००० वर्ष हो चुकी है।
ऊनषोडश वर्षो मे रामो राजीवलोचनः॥२॥
षष्टिर्वर्ष सहस्राणि जातस्य मम कौशिक॥१०॥ (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग २०)
टीकाकार नीलकण्ठ ने यहां वर्ष को अहोरात्र कहा है, अर्थात् ७२० दिन-रात रूपी वर्ष का सौर वर्ष होगा। अर्थात् उस समय ८२.२ वर्ष के थे। पुत्र कामेष्टि के समय वे ६६.२ वर्ष के थे। कौशल्या भी पुत्र जन्म की अवस्थापार कर चुकी थी। अतः उनके शरीर में प्राण का सञ्चार आवश्यक था जिसे आयुर्वेद में वाजीकरण या कायाकल्प भी कहा गया है। शरीर के भीतर अश्व का आन्तरिक रूप प्राण है। अतः पुत्रकामेष्टि को अश्वमेध (हय-मेध) यज्ञ कहा गया है।
सुतार्थी वाजिमेधेन किमर्थं न यजाम्यहम्॥२॥
तदर्थं हयमेधेन यक्ष्यामीति मतिर्मम॥८॥ (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग ८)
प्रसवार्तः गतो यष्टुं हयमेधेन वीर्यवान् (रामायण, १/१३/१०)
इसमें घोड़ा छोड़ने का अर्थ है कि शरीर के भीतर प्राण रूपी अश्व किसी स्थान पर बन्ध गया है, उसे मुक्त करना।
इस यज्ञ में २१ यूप (स्तम्भ) २१ अरत्नि के थे तथा ७ यज्ञ ३-३ दिन किये गये अर्थात् २१ दिन हुए।
एकविंश्ति यूपास्ते एकविंशत्यरत्नयः॥२३॥ त्र्यहोऽश्वमेधः संख्यातः कल्पसूत्रेण ब्राह्मणैः॥३८॥
ज्योतिष्टोमायुषी चैवमतिरात्रौ च निर्मितौ।
अभिजिद्विश्वजिच्चैवमाप्तोर्यामो महाक्रतुः॥४०॥ (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग १४)
रघुवंश में भी पुत्र प्राप्ति के लिए राजा दिलीप ने २१ दिन तक कामधेनु की सेवा रूप यज्ञ किया।
सप्तव्यतीयुस्त्रिगुणानि तस्य दिनानि दीनोद्धरणोचितस्य। (रघुवंश, २/२५)
रामायण के अनुसार राजा दिलीप की यक्ष्मा के कारण ३०,००० वर्ष (८२ वर्ष, या अहोरात्र लेने पर ४१ वर्ष) में मृत्यु हुयी थी।
दिलीपस्तु महातेजा यज्ञैर्बहुभिरिष्टवान्। त्रिंशद्वर्ष सहस्राणि राजा राज्यमकारयत्॥८॥
व्याधिना नरशार्दूल कालधर्ममुपेयिवान्॥९॥ (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग, ४२)
यहां रघुवंश की वंशावली से अन्तर है।
यज्ञ का पायस खाने से दशरथ की रानियों को ४ पुत्र हुए।
इदं तु नरशार्दूल पायसं देवनिर्मितम्॥१९॥ भार्याणामनुरूपाणामश्नीतेति प्रयच्छ वै।
तासु त्वं लप्स्यसे पुत्रान्यदर्थं यजसे नृप॥२०॥ (रामायण, बालकाण्ड, सर्ग १६)
बृहदारण्यक उपनिषद् (६/४/१४-१८) में विशिष्ट गुण वाले पुत्रों के लिए अलग अलग प्रकार की खीर खाने का वर्णन है।
स य इच्छेत् पुत्रो मे शुक्लो जायेत वेदमनुब्रुवीत सर्वमायुरिति क्षीरौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै॥१४॥
अथ य इच्छेत् पुत्रो मे कपिलः पिङ्गलो जायेत द्वौ वेदावनुब्रवीत सर्वमायुरियादिति दध्योदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै॥१५॥
अथ य इच्छेत् पुत्रो मे श्यामो लोहिताक्षो जायेत त्रीन् वेदावनुब्रवीत सर्वमायुरियादित्युदौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै॥१६॥
अथ य इच्छेद् दुहिता मे पण्डिता जायेत सर्वमायुरियादिति तिलौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै॥१७॥
यहां विदुषी पुत्री के जन्म के लिए भी उपयुक्त चरु का उल्लेख है। शरीर के वर्ण का वेद अध्ययन से कोई सम्बन्ध नहीं है। एक व्यक्ति को अपनी शाखा के अनुसार एक ही वेद पढ़ने का दायित्व है। इन मन्त्रों के अर्थ अज्ञात हैं।
२. पुरुषोत्तम राम- भगवान् के १० या २४ अवतारों में राम तथा कृष्ण अवतार सबसे प्रमुख हैं। अवतार गणना का एक गणित भी है। भास्कराचार्य ने लीलावती ग्रन्थ में २४ अवतारों की गणना का आधार बताया है। विष्णु भगवान् के ४ हाथ हैं। उनमें ४ आयुध रहते हैं-शंख, चक्र, गदा, पद्म। इन आयुधों को ४ हाथों में २४ प्रकार से रख सकते हैं, अतः २४ अवतार हैं। शंख को ४ हाथों में ४ प्रकार से रख सकते हैं। किसी भी एक हाथ में शंख रखने पर ३ हाथ खाली बचते हैं, उनमें ३ प्रकार से चक्र रख सकते हैं। कुल ४ x ३ प्रकार हुए। उसके बाद बचे २ हाथों में २ प्रकार से गदा तथा अन्तिम १ हाथ में १ प्रकार से पद्म रख सकते हैं। इस प्रकार कुल ४ x ३ x २ x १ = २४ अवतार हुए।
मनुष्य रूप में २ हाथों में अन्य प्रकार से ४ आयुध रखते हैं, हाथ क्रम का भेद नहीं रखते हैं। केवल १ आयुध ४ प्रकार से चुन सकते हैं। २ आयुध ६ प्रकार से चुन सकते हैं-शंख-चक्र, शंक-गदा, शंख-पद्म, चक्र-गदा, चक्र-पद्म, गदा-पद्म। कुल ४ +६ = १० अवतार हुए।
अन्य अवतारों को अंश अवतार कहते हैं, श्रीकृष्ण को पूर्ण अवतार रूप में भगवान् कहते हैं।
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् (भागवत पुराण, १/३/२८)
जगन्नाथ के अवतारों में राम ही पुरुषोत्तम रूप से प्रथित हैं। अतः एक का विषेशण प्रथम हुआ, जिसका एक से कोई सम्बन्ध नहीं है। अन्य संख्याओं- द्वि से द्वितीय, त्रि से तृतीय आदि होते हैं। अन्न आदि तौलने के समय भी १ के बदले प्रथम स्थान में पुरुषोत्तम राम कहते हैं।
यस्मात् क्षरमतीतोऽहं अक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥ (गीता, १५/१८)
३. राम तथा कृष्ण-ये सृष्टि निर्माण के २ विपरीत तथा पूरक तत्त्व हैं।
मूल स्रोत रस रूपी ब्रह्म था-रसो वै सः (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/७/२)
उससे समुद्र जल जैसे फैले पदार्थ अप् के ९ स्तर हुए जिनमें प्रकृति के ९ सर्ग हुये।
स्वयम्भू मण्डल में -रस, सलिल (तरंग सहित), सरिर् (शरीर-स्थिर आकार)
ब्रह्माण्ड या परमेष्ठी मण्डल-अप्, अम्भ (शब्द सहित), साम्भ-सदाशिव (शान्त स्थिति में निर्माण)
सौर मण्डल-अग्नि या रुद्र क्षेत्र (पृथ्वी कक्षा तक), शिव क्षेत्र या वायु (सौर कण प्रवाह-यूरेनस तक), शिवतर, शिवतम (रवि, मर रूप अप्-मर् का स्रोत मरीचि)।
भृगु आकर्षण करता है, अङ्गिरा (अंगार) द्वारा तेज निकलता है। पदार्थ या तेज के घनत्व के हिसाब से भृगु-अंगिरा के ३-३ भेद हैं-अग्निरादित्ययमा-इत्येतेऽङ्गिरसः ....वायुरापश्चन्द्रमा-इत्येते भृगवः (गोपथ ब्राह्मण पूर्व, २/९)। भृगु-अंगिरा का समन्वय या स्रोत (सूर्य) से अन्त (यम) तक का प्रवाह उत्पादक पूषा या एकर्षि अत्रि है-पूषन्नेकर्षे यम-सूर्य प्राजापत्य (ईशावास्योपनिषद्, १६)
भृगु के स्तर-वायु (आकर्षण द्वारा गति), आप (आप्नोति- एकत्रीकरण), चन्द्र (ठोस पिण्ड)
अङ्गिरा स्तर- अग्नि (उच्च ताप), आदित्य (विकिरण द्वारा निर्माण, जीवन--आदित्य से आदि), यम (पूर्णता, नियमन या चक्र)।
आकर्षण तत्त्व कृष्ण है। आकर्षण से अप् में गति, एकत्रीकरण, पिण्ड निर्माण होते हैं। उसके अतिरिक्त आकर्षण केन्द्र से अन्य पिण्ड उसका चक्कर लगाते हैं, जिससे सृष्टि (रजः = लोक) बने हुए हैं। अति आकर्षण से प्रकाश भी नहीं निकलता है तथा पिण्ड काले रंग का (कृष्ण) दीखता है।
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो, निवेशयन् अमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
(ऋक्, १/३५/२, वाज यजु, ३३/४३, तैत्तिरीय सं, ३/४/११/२)
सौर मण्डल से बड़ी रचना अपेक्षाकृत दीर्घ काल तक स्थिर है, उसे अमृत कहा गया है। सौर मण्डल मर्त्य है, अतः इसके अप् को मर कहा गया है। विष्णु पुराण (२/७/१९-२०) में इनको कृतक, अकृतक (स्थिर) कहा गया है।
तारा निर्माण के बाद उससे दृश्य प्रकाश निकलता है, उस रूप को रवि कहते हैं (जो रव करता है) इससे यज्ञ या निर्माण होता है, अतः यज्ञ में समर्थ व्यक्ति को सम्मान के लिए रवा (काशी क्षेत्र में आप) या राव (दक्षिण भारत में, तमिल रूप रावण) कहते हैं।
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो, निवेशयन् अमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
(ऋग्वेद, १/३५/२, वाज यजु, ३३/४३, तैत्तिरीय सं, ३/४/११/२)
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति, महोदेवो मर्त्याँ आविवेश (ऋक्, ४/५८/३)
दृश्य प्रकाश के पूर्व भी तेज रूप में विकिरण था जिसे इन्द्र रूप कहागया है। जहां कुछ नहीं है, वहां भी इन्द्र रूप में तेज है जो माया (आवरण) द्वारा पुर (रचना) या पुरु रूप लेता है।
नेन्द्रात् ऋते पवते धाम किञ्चन। (ऋक्, ९/६९/६)
शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रम्। (ऋक्, ३/३०/२२)।
तत् सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत्। तत् अनुप्रविश्य सत् च त्यत् च अभवत्। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/६)
ऊर्जा रूप ब्रह्म इन्द्र है, वह भी हर रूप में प्रविष्ट है-
रूपं रूपं वयो वयः (अथर्व सं, १३/१/४, काण्व सं, ८/१४)
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय।
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश॥ (ऋक्, ६/४७,१८, शतपथ ब्राह्मण, १४/५/१९)
सौर मण्डल में बाह्य आवरण संकर्षण (मिलित आकर्षण) है जिससे वह सूर्य के आकर्षण द्वारा ब्रह्माण्ड का पदार्थ सूर्य तक आता है, तथा कलंक रूप में दीखता है। यह सूर्य रूपी विष्णु पर भृगु का चरण है, जिसे लाञ्छन कहा गया है।
आकर्षक कृष्ण रूप में संकर्षण पहले है, केन्द्र विष्णु (वेष्टन करने वाला) बाद में है।
तेज रूप में सूर्य रूपी विष्णु पहले है, तेज बाद में संकर्षण दिशा में जाता है। मनुष्य रूप में संकर्षण बलराम कृष्ण से बड़े थे। राम अवतार में संकर्षण लक्ष्मण छोटे भाई हो गये।
गतिशील प्राण ’रं’ है, जो भाषा में राम हो गया है-
प्राणो वै रं प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रतानि (शतपथ ब्राह्मण, १४/८/१३/३, बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१२/१)
शरीर में ब्रह्म रूप ॐ है, जब वह निकलता है तो गतिशील प्राण रूप में रं है। उस व्यक्ति रूप प्राण का निर्देश नाम से होता है। अतः ब्रह्म के त्रिविध रूप ॐ तत् सत् का रूप राम (रं) नाम सत् हो जाता है।
ॐ तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः (गीता, १७/२३)
कृष्ण का बीज मन्त्र क्रीं है, जो अरबी में संयुक्त अक्षर नहीं होने से करीम हो गया है। कृष्ण के क्षेत्र रूप काली का बीज मन्त्र क्लीं है,जिसकी साधना मूलाधार में की जाती है। रं तेज रूप है, यह नाभि के पीछे मणिपूर चक्र का बीज मन्त्र है।
क्लीङ्कारात् असृजम्, कृष्णात् आकाशं खात् वायुः,उत्तरात् सुरभि विद्याः प्रादुरकार्षम् (गोपाल पूर्वतापिनी उप, ३/९)
४. सीता तत्त्व- वाल्मीकि ने पौलस्त्यवध नामक काव्य सीता के महान् चरित का वर्णन करने के लिये लिखा था-
काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितं महत्। पौलस्त्यवधमित्येव चकार चरितव्रतः॥७॥
(वाल्मीकि रामायण, १/४/७)
परम तत्त्व के रूप में सीता-राम एक ही हैं, जो सृष्टि के लिये २ रूपों में दीखते हैं।
गिरा-अरथ जल वीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न। वन्दौं सीताराम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न॥
(रामचरितमानस, बालकाण्ड, १८/०)
इसी द्वैत मिलन को कालिदास ने वाक्-अर्थ (गिरा-अरथ) रूप में पार्वती-परमेश्वर कहा है-
वागर्थाविवसंपृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये। जगतः पितरौ वन्दे पार्वती-परमेश्वरौ॥ (रघुवंश, मंगलाचरण)
प्रकृति-पुरुष के द्वैत रूपों के कई नाम पद्म पुराण, अध्याय (६/२४३/२४-३८) में महादेव स्तुति में है-मूलप्रकृति-परमात्मा, पुरुष-प्रकृति, जगत् के माता-पिता, जननी-राघव, प्रपञ्च-निष्प्रपञ्च, ध्यान-आत्ममूर्ति, परिणाम-अपरीणां, कूटस्थ-बीज, सीता-राघव, लक्ष्मी, गौरी-शिव, सावित्री-ब्रह्मा, शची-शक्र, स्वाहा-अनल, संहारिणी-यमसर्वसम्पत्ति-कुबेर, रुद्राणी-रुद्र, रोहिणी-चन्द्र, संज्ञा-सूर्य, रात्रि-दिवा, महाकाली-महाकाल, सभी स्त्रीलिङ्ग रूप-पुल्लिङ्ग रूप।
परम पुरुष रूप में राम अव्यक्त ब्रह्म हैं। सृष्टि के लिये सीता उनका प्रकृति रूप हैं। इसका वर्णन सीता जी ने हनुमान् से किया है जिसे राम-हृदय कहते हैं (अध्यात्म रामायण, सर्ग १) इसका पूरा सारांश रामचरितमानस के मङ्गलाचरण में है-
उद्भव-स्थिति-संहार-कारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां, नतोऽहं रामवल्लभाम्॥५॥
यन्माया वशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा,
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जुर्यथाहेर्भ्रमः।
(असत् या कम सत्य विश्व मायाके कारण सत्य जैसा दीखता है, जैसे रज्जु सांप जैसा। अन्धकार में सांप रस्सी जैसा लग सकता है, पर चढ़ने के लिये उसे रस्सी जैसा काम नहीं ले सकते है जैसा तुलसीदास की लोकोक्ति में कहा गया है)
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां,
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥६॥
वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त अध्यात्म रामायण (वह भी वाल्मीकि का है), आनन्द रामायण, अद्भुत् रामायण, महाभारत, पद्मपुराण, स्कन्द पुराण आदि में श्री राम का परमेश्वर रूप तथा श्री सीता का महाशक्ति या राम स्वरूप होना स्पष्ट रूप से वर्णित है।
रामायण में बहुत स्थानों पर राम के परमात्मा या विष्णु रूप का वर्णन है-(१/१५/१६, २१, २२; १/१८/१०,११; १/१९/१४, १५, १/४९/२१,२२; १/७६/१७-१९; २/१७/१३,१४; २/३७/३२; २/४०/२४; ३/३७/१३, ३/६४/५४-६२; ४/१५/१९-२१, ४/२४/३१; ५/५१/४४, ६/१८/२३,३३; ६/२८/१६-२०; ६/३५/३६; ६/३५/३६; आदि)।
सीता जी को भी पराशक्ति कहा है। स्वयं सीताजी ने कहा- मैं राघव से वैसे ही अभिन्न हूं, जैसे भास्कर से उसकी प्रभा। जैसे तपोनिष्ठ ब्राह्मण की विद्या अनपायिनी है, उसी प्रकार मैं श्रीराम की अनपायिनी शक्ति हूं।
अनन्या राघवेणाहं भास्करेण यथा प्रभा॥ (५/२१/१५)
अहमौपायिकी भार्या तस्यैव च धरापतेः। व्रतस्नातस्य विद्येव विप्रस्य विदितात्मनः॥१७॥
श्रीराम भी सीता की कीर्त्ति तथा अभिन्नता कहते हैं-सीता मुझसे वैसे ही अभिन्न हैं, जैसे भास्कर से प्रभा। जनकपुत्री तीनों लोकों में अत्यन्त विशुद्ध हैं। जैसे आत्मवान् प्राणी द्वारा कीर्ति का त्याग अशक्य है, वैसे ही सीता का त्याग भी अशक्य है।
अनन्या हि मया सीता भास्करेण प्रभा यथा॥ (६/१२१/१९)
विशुद्धात्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा। न हि हातुमियं शक्या कीर्तिरात्मवता यथा॥२०॥
५. वेदों में सीता राम चर्चा -इक्ष्वाकु नाम ऋक् तथा अथर्व वेद में आया है-
यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान्मराय्येधते। दिवीव पञ्चकृष्टयः॥ (ऋक्, १०/६०/४)
पर यहां असमाति देव हैं तथा ५ प्रकार की कृषि उत्पाद का उल्लेख है।
यं त्वा वेद पूर्व इक्ष्वाको यं वा त्वा कुष्ठ काम्यः (अथर्व, १९/३९/९)
इसका देवता कुष्ठ है तथा उसकी चिकित्सा का कथन है।
एक स्थान पर दशरथ का उल्लेख है-
चत्वारिंशद् दशरथस्य शोणाः सहस्र्याग्रे श्रेणिं नयन्ति (ऋक्, १/१२६/४)
= दशरथ के लाल रंग के ४० घोड़े १००० घोड़ों का नेतृत्व करते हैं।
इसके पूर्व के मन्त्र में दश रथासो शब्द है- यहां अलग अलग १० रथों का उल्लेख है, किसी व्यक्ति का नहीं।
वेद में सीता स्वरूप -
इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषाभिरक्षतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरां समाम्॥
(ऋक्, ४/५७/७, अथर्व सं. ३/१७/४, कौशिक सूत्र, ७८/१०)
इन्द्र सीता को ग्रहण करें, पूषा सूर्य उसकी रखवाली करें और सीता पानी से भरी प्रत्येक वर्षा में धान्य प्रदान करती रहे।
सीता कृषि उत्पादन है जिसका भाग कर के रूप में राजा इन्द्र को मिलता है।
सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव। यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः॥
(ऋक्, ४/५७/६, अथर्व, ३/१७/८, तैत्तिरीय आरण्यक, ६/६/२, कौशिक सूत्र, २०/१०)
हे सीता! हम तुम्हारी वन्दना करते हैं, हे सौभाग्यवती! हमारी ओर अभिमुख हो, जिससे तू हमारे लिए सुन्दर फल देने वाली हो।
घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वेदेवैरनुमता मरुद्भिः। सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जवती घृतवत्पिन्वमाना॥
(ऋक्, ४/५७/९, अथर्व, ३/१७/९, वाजसनेयि सं. ३/३, शतपथ ब्राह्मण, ७/२/२/१०, तैत्तिरीय संहिता, ४/२/५/६, मैत्रायणी संहिता, २/७/१२, या ९२/७, काण्व संहिता, १६/१२, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र, १६/२०/७)
घृत और मधु से ओतप्रोत सीता विश्वेदेवताओं और मरुतों से अनुमोदित हो। हे सीते! ओजस्विनी और घी से सींची हुई तू पय (दूध) के साथ हमारे पास विद्यमान रहे।
पारस्कर गृह्य सूत्र में सीता यज्ञ का विस्तृत वर्णन है। खेत के उत्तर या पूर्व में पहले से जोते हुए शुद्ध स्थल पर या गांव में आग जला कर स्थालीपाक तैयार करते हैं। घृत की आहुति देने के समय इन्द्र, सीता एवं उर्वरा से प्रार्थना की जाती है-
यस्या भावे वैदिक लौकिकानां भूतिर्भवति कर्मणामिन्द्रपत्नीमुपह्वये सीतां सा मे त्वनपायिनी भूयात् कर्मणि कर्मणि स्वाहा॥ (पारस्कर गृह्य सूत्र, २/१७/४)
हे कामधेनु सीते! आप मित्र, वरुण, इन्द्र अश्विन, पूषण, प्रजा और ओषधियों का मनोरथ पूरा करें।
काठक गृह्य सूत्र के अनुसार खस आदि सुगन्धित घास से सीता कुमारी देवी की मूर्ति बनायी जाती है-
यत्र वीरणादिमयी सीता कुमारी देवता विरच्यते।
कौशिक सूत्र के१३वें अध्याय के अन्त में सीता की विस्तृत प्रार्थना की गयी है। यह सामग्री सामवेद के अद्भुत् ब्राह्मण से मिलती है। विलक्षण घटनाओं पर अपशकुन के निवारणार्थ दो हलों के उलझ जाने पर पुरोहित को पुरोडाश तैयार करके जंगल में पूर्व की ओर एक सीता खींचनी पड़ती थी। उसमें अग्नि जला कर आहुति देते समय प्रार्थना होती थी-
वित्तिरसि पुष्टिरसि प्राजापत्यानां त्वाहं मयि---।
इनमें सर्वाङ्गशोभिनी, हिरण्मयी माला धारण करने वाली, कालनेत्रा, श्यामा, हिरण्मयी पर्जन्य पत्नी सीता का मानवीकरण स्पष्ट है। महाभारत के द्रोण पर्व में शल्य के ध्वजाग्र में सीता का उल्लेख हुआ है। हरिवंश में भी-
मद्रराजस्य शल्यस्य ध्वजाग्रेऽग्निशिखामिव। सौवर्णीं प्रतिपश्यामः सीतामप्रतिमां शुभाम्॥
सा सीता भ्राजते तस्य रथमास्थाय मारिष। सर्वबीजविरूढेव यथा सीताश्र्या वृता॥ (महाभारत, ७/१०५/१८,१९)
कर्षकाणां च सीतेति भूतानां धारणीति च। (हरिवंश पुराण, २/३/१४)
कौशिक सूत्र में महालक्ष्मी रूपा सीता की स्तुति-
वित्तिरसि पुष्टिरसि प्राजापत्यानां त्वाहं मयि पुष्टिकामो जुहोसि स्वाहा।
कुमुद्वती पुष्करिणीं सीता सर्वाङ्गशोभिनी। कृषिः सहस्रप्राकारा प्रत्यष्टा श्रीरियं मयि॥
उर्वीं त्वाहुर्मनुष्याः श्रियं त्वा मनवो विदुः। आशयेऽन्नस्य नो धेह्यनमीवस्य शुष्मिणः॥
पर्जन्य पत्नि हरिण्यभिजातास्याभि नो वेद।
कालनेत्रे हविषा नो जुधस्व तृप्तिं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥
याभिर्देवा असुरानकल्पयन् यानून् गन्धर्वान् राक्षसांश्च।
ताभिर्नो अद्य सुमना उपागहि सहस्रापोषं सुभगे रराणा॥
हिरण्यसृक् पुष्करिणी श्यामा सर्वाङ्गशोभिनी।
कृषिर्हिरण्यप्राकारा प्रत्यष्टा श्रीरियं मयि॥
अश्विभ्यां देवि सह स्ंविदाना इन्द्रेण राधेन सह पुष्ट्या न आगहि॥
विशस्त्वा रासन्तां प्रदिशोऽनु सर्वाहोरात्रार्धमासमास आर्तवा ऋतुभिः सह॥
भर्त्री देवानामुत मर्त्यानां भर्त्रीं प्रजानामुत मनुष्याणाम्॥
हस्तभिरित्तरासैः क्षेत्रसाराधिभिः सह। हिरण्यैरश्वैरा गोभिः प्रत्याष्टा श्रीरियं मयि॥
(कौशिक गृह्य सूत्र, अध्याय १३)
श्री रूप में देवी की स्तुति है अतः इसके कई अंश तथा नाम श्रीसूक्त जैसे हैं।
हिरण्यवर्णा, हरिणी, हिरण्मयी, अनपगामिनी (अनपायिनी), विभिन्न सम्पत्ति-गाम्-गाय, यज्ञ सम्पत्ति। हिरण्य-स्वर्ण आदि सम्पत्ति, अश्व-घोड़े आदि वाहन। पुरुष-पुत्र, मित्र, दास आदि, हितैषी मित्र, निष्ठावान दास, अश्वपूर्वा, श्री, आर्द्रा, पुष्करिणीम्, पुष्टिम्, तुष्टिम्।
अथर्व वेद के कृषि सूक्त (३/१७) का सीता देवता हैं।
काण्ड ३, सूक्त १७, ऋषि विश्वामित्र। देवता सीता
सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक्। धीरा देवेषु सुम्नयौ॥१॥
= देवों में बुद्धि रखने वाले कवि (निर्माता) सुख पाने के लिए हलों को जोतते हैं और जुओं को अलग करते हैं।
युनक्त सीरा वि युगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम्।
विराजः श्नुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमा यवन्॥२॥
= हलों को जोड़ो, जूओं को फैलाओ, बने हुए खेत में यहां पर बीज बोओ। अन्न की उपज हमारे लिए भरपूर हो। हंसुए से परिपक्व धान हमारे पास आयें।
लाङ्गलं पवीरवत्सुशीमं सोमसत्सरु। उद्द्विपतु गामवि प्रस्थावद्रथवाहनं पीवरीं च प्रफर्व्यम्॥३॥
= वज्र जैसा कठिन, सहज चलाने लाला, लकड़ी के मूठ का हल, गौ और बकरी (या भेड़ = अवि) तेज चलने वाले रथ के घोड़े या बैल मिले तथा स्त्री स्वस्थ सशक्त रहे।
इन्द्रः सीतां निगृह्णातु तां पूषाभिः रक्षतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्॥४॥
सीता का अर्थ कृषि उत्पाद या उसका साधन हल की नोक है। यज्ञ इसी पर आधारित है, अतः हर यज्ञ या पूजा में हळीष (या हरीश) गाड़ते हैं। राजा रूप में इन्द्र कृषि उपज का एक भाग (कर) लेते हैं, जिससे राष्ट्र चलता है। हल अर्थ लेने पर-इन्द्र हल पकड़ें, पूषा उसकी रक्षा करे। वह रस युक्त हो कर भविष्य में रसों का प्रदान करे।
सभी यज्ञों का मूल कृषि है जिससे जीवन चलता है। अन्य सभी यज्ञ इसी पर निर्भर हैं। (गीता ३/११-१६) में इसका चक्र दिया है। इसी को कामधेनु या कामधुक् कहा है।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरो वाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१०॥ (गीता, अध्याय ३)
अपनी विभूति वर्णन में भी कामधेनु को कामधुक् कहा गया है-धेनूनामस्मि कामधुक् (गीता, १०/२८)
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥१४॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥१५॥ (गीता, अध्याय ३)
कृषि यज्ञ द्वारा जनन का मुख्य केन्द्र होने से मिथिला के राजाको जनक कहते थे। धान, गेहूं आदि सभी अन्न दर्भ (घास) के रूप हैं। मिथिला में केवल यह दर्भ होता था, अतः यह दर्भङ्गा है। इसके चारों तरफ कम या अधिक अरण्य हैं-चम्पारण, सारण, अरण्य (आरा), कीकट (बबूल, मगध), पूर्णारण्य (पूर्णिया)। अथर्व वेद काण्ड १९में ३२, ३३ सूक्त दर्भ के हैं।
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