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गाॅंवों की जिज्ञासा

गाॅंवों की जिज्ञासा

मत जगा तू मेरी पिपासा ,
मत कर तू मुझे हताशा ,
व्योम मंडल के छाॅंव मुझे ,
बस रहने दे तू गाॅंव मुझे ।
मत डाल तू मुझमें दुविधा ,
मत दिखा अधिक सुविधा ,
सुविधा से हूॅं कोसों दूर ,
किंतु मुझमें प्यार भरपूर ।
मत बना तू मुझको शहर ,
बस एक दौड़ा दे तू नहर ,
रहने दे तरु के छाॅंव मुझे ,
बस रहने दे तू गाॅंव मुझे ।
गाॅंवों की एक जिज्ञासा ,
पूरी कर एक अभिलाषा ,
हमारे कृषक कृषि के शूर ,
जिससे बरसे शक्ति नूर ।
शक्ति बरसे जिसके पाणि ,
विनम्र मृदुल जिसकी वाणी ,
बहाने दो भ्रातृत्व भाव मुझे ,
बस रहने दे तू गाॅंव मुझे ।
रहने दे तू निर्भय निश्छल ,
मत बना उद्देश्य निष्फल ,
मुझमें कृषक बनाए खेत ,
भरता जो जगत का पेट ।
सभ्यता शिष्टता बहने दो ,
प्रेम सौहार्दता तो रहने दो ,
मत सीखा अब दाॅंव मुझे ,
बस रहने दे तू गाॅंव मुझे ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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