अभागिन
कच्ची उम्र में ही बनी वह सुहागन,
नहीं हुआ था अभी उसका द्विरागमन।
तभी एक मनहूस खबर का हुआ आगमन,
उजड़ गई दुनिया जीवन हुआ सुनसान ।
जीवन कैसे कटेगी यह सोंच थी परेशान,
पैरों पर खड़ा होने का मन में लिया ठान।
पढ़ - लिख कर खुद को काबिल बनाया,
अपनी मेहनत से सहज उसने नौकरी भी पाया।
कामों में व्यस्त दुखों को लगी भूलने ,
पर तन्हाई में अकेलापन लगा खलने।
चरित्र को बचा नौकरी लगी करने,
निर्बाध रूप से जीवन लगी बढ़ने ।
सहेलियों ने पुनर्विवाह को खूब उकसाया,
लोक लाज की बात कह प्रस्ताव को ठुकराया।
स्वार्थवश बाप-भाई उससे चिपके रहे,
जोंक बनकर धनरूपी रक्त को चूसते रहे।
जवानी की आग में वह झुलसती रही,
जीवन की सुख पाने को वह तरसती रही।
भाई-भतीजों का उद्धार वह करती रही,
उनके सुखों की खातिर खुद को मिटाती रही।
जीवन की खुशियां अपनों पर लुटाती रही,
तिल - तिल अपने को वह जलाती रही।
सदा जीवन में सुखों से वह वंचित रही,
दुखों के हलाहल से सिंचित रही।
सुरेन्द्र कुमार रंजन
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