दीप जलते रह गये !
अर्चना कृष्ण श्रीवास्तव
दीप जलते रह गये
यूँ ही इन्तजार में ,
बंशी के धुन में या फिर-
यमुना के धार में,
आयेगा अपना कान्हा
बस इस करार में,
मथुरा और द्वारिका के
शीतल बयार में,
बेसुध राधिका के
मन के श्रृंगार में,
यूँ बस गया वो छलिया
क्या था संसार में,
फिर प्रीत-रीत क्या था,
क्या जीत-हार में !
कुछ था नहीं कि राधा
दे जग को प्यार में ।
वो कृष्ण हो गयी थी,
सासों के हार में ।
सिर्फ कृष्ण बसा रह गया
प्राणों के द्वार में ।
सब दीप जलते रह गये
तेरे नेह धार में ।
कण-कण था कृष्ण
क्षण-क्षण उस नेह तार में ।
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दीप जलते रह गये
यूँ ही इन्तजार में ,
बंशी के धुन में या फिर-
यमुना के धार में,
आयेगा अपना कान्हा
बस इस करार में,
मथुरा और द्वारिका के
शीतल बयार में,
बेसुध राधिका के
मन के श्रृंगार में,
यूँ बस गया वो छलिया
क्या था संसार में,
फिर प्रीत-रीत क्या था,
क्या जीत-हार में !
कुछ था नहीं कि राधा
दे जग को प्यार में ।
वो कृष्ण हो गयी थी,
सासों के हार में ।
सिर्फ कृष्ण बसा रह गया
प्राणों के द्वार में ।
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