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सुदामा

सुदामा

आनंद हठिला पादरली (मुंबई)
उस दिन रविवार था ।किंतु सुबह नौ बजे अर्जेंट बुलावे पर मुझे अपनीं कंस्ट्रक्शन कंपनी के एम॰डी की कोठी पर जाना पड़ा था ।लौटते समय रास्ते में पड़नेवाले मार्केट की एक बेकरी पर मैंने कार रोकी।वहाँ अचानक मैंने उसे देखा ।ढीली-ढाली पेंट, रंग उड़ी छींट वालीं बुशर्ट में वह साइकिल पकड़े खड़ा था ।साइकिल के कैरियर पर एक बड़ा सा लकड़ी का बक्सा पुरानी ट्यूब से बंधा था ।यद्यपि वर्षों पहले के बचपन के साथी को पहचानना कठिन होता है,पर उसकी ठोड़ी पर पड़े कट के निशान से लगा कि हो न हो यह रघु ही है ।फिर भी इस रूप और इस हालत में उसे देख कर मन में संशय था।संशय दूर करने की ख़ातिर मैंने उसका नाम लेकर पुकारा—रघु ऽऽ ।
अपनी साइकिल का हैंडल पकड़े वह ठिठक कर रुक गया और मेरी ओर विस्मित होकर देखने लगा ।मेरी कार और मेरी वेशभूषा देखकर वह असमंजस में था।रघु नाम सुनकर उसके ठिठकनें पर मुझे यक़ीन हो गया था कि वह मेरे बचपन का दोस्त रघु ही है ।
उसके असमंजस को नज़रअंदाज़ करते,मैंने उससे मुख़ातिब होते हुए कहा—“ पहचाना ? मैं मुरादाबाद की रेलवे कालोनी वाला तुम्हारे बचपन का दोस्त बिट्टू हूँ ।”
पहले तो उसे विश्वास सा नहीं हुआ, पर कुछ क्षणों बाद ही उसकी आँखों में आई चमक से लगा कि उसने मुझे पहचान लिया है ।किंतु हम दोनों के स्तर का फ़र्क़ उसे सहज नहीं होने दे रहा था ।
उन दिनों हम मुरादाबाद के रेलवे कालोनी क्वार्टरों में रहते थे ।मेरे पिताजी रेलवे में गार्ड थे तथा उसके पिताजी रेलवे में ही चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे ।मेरी उम्र तब ८-९ वर्ष रही होगी ।वह मेरे से दो -एक वर्ष बड़ा था ।कालोनी से ही सटे खेत-खलिहान तथा आम , अमरूद, जामुन आदि के बगीचे थे ।उन दिनों आज के बच्चों के समान न तो वाई-फ़ाई होता था और न ही किसी तरह के गैजेट आदि । मेरे बचपन की उस दुनिया में होते थे गिल्ली-डंडा ,पिट्ठू, छुपा-छुपाई जैसे ठेठ देसी खेल ।इसके साथ होता था , कालोनी के कुछ फ़ासले पर स्थित पेड़ों से चुराये गये कच्चे पक्के फलों के जोखिम भरे करतबों का एडवेंचर ।
रघु मेरा सखा तो था ही किंतु मेरे से कुछ वर्ष बड़ा होने के कारण वह स्वयं को मेरे संरक्षक की भूमिका में भी रखता था ।किंतु इस संरक्षण में उसके अंदर मेरे प्रति एक छोटे भाई का स्नेह ही प्रमुख था ।जब हम किसी बगीचे से कच्चे-पक्के अमरूद चुराने में सफल होते तो वह पक्के अमरूद मुझे देता तथा स्वयं कच्चे वाले खाता था।जब मैं पूछता कि रघु भइया ,आपने यह कच्चे वाले क्यों लिए? इस पर वह हंस कर कहता कि मेरे दांत तेरे से ज़्यादा मज़बूत हैं ,तू छोटा है , ज़्यादा सवाल न कर अमरूद का मज़ा ले ।
खेल में यदि किसी लड़ाई-झगड़े में मैं घिर जाता तो वह सीना तान कर मेरे पक्ष में खड़ा हो जाता ।यद्यपि उसके घर और मेरे घर के स्तर में बड़ा फ़र्क़ था पर स्तर का यह फ़र्क़ हमारी दोस्ती में कभी आड़े नहीं आया ।ऐसे ही एक बरसात भरी दोपहर में जामुन के पेड़ पर लटके काले रसीले जामुन के गुच्छे हमें ललचा रहे थे ।बरसात से पेड़ की शाखाओं में फिसलन थी किंतु जामुन की मीठी कल्पना में यह ख़तरे गौड़ थे ।आनन-फ़ानन में रघु पेड़ पर और टपा-टप टपकती जामुन मेरी जेबों में ।तब ही बो हादसा हो गया ।पेड़ की एक कच्ची डाल तड़क गई और रघु पेड़ की शाख़ों से उलझता हुआ ज़मीन पर आ गिरा ।हाथ-पैर तो छिले ही पर उसकी ठोड़ी बुरी तरह कट गई थी । खून से उसकी गर्दन तक लाल हो गई थी ।खून देखकर मैं डर के मारे रोने लगा था ,किंतु वह इस पर भी मुझे ही ढाँढस बँधा रहा था ।इतने में कुछ और लोग इकट्ठा हो गए,पर मैं डर कर घर भाग आया ।रघु के सात टाँके लगे थे ।
कुछ महीने बाद पिता जी का ट्रांस्फ़र मुरादाबाद से मेरठ हो गया ।पीछे छूट गई बो रेलवे कालोनी,आम-जामुन के पेड़ और मेरा वह संरक्षक दोस्त रघु ।
आज इतने वर्षों के बाद वही रघु एक खटारा साइकिल के साथ मेरे सामने खड़ा था ।
कैसे हो रघु ?-मैंने पूछा ।”मैं तो ठीक हूँ पर लगता है तुम बड़े आदमी बन गए हो ।”- उसने मेरी कार को देखते हुए कहा । “ चलो कहीं बैठ कर बात करते हैं ।”—मैंने सुझाव देते हुए कहा ।
हम बेकरी से सटे टी-स्टाल पर जाकर बैठ गए ।चाय का घूँट भरने के पश्चात लगा जैसे उसका बड़े भाई वाला किरदार फिर उभर आया हो ।उसने इधर-उधर देख कर धीरे से पूछा-“ कोई ऐसा-बैसा धंधा तो नहीं करते हो बिट्टू।
उसकी सोच पर मुझे हंसी आ गई।मुस्कुराते हुए मैंने कहा-“ मैं एक बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी में इंजीनियर हूँ ।पर तुम ?
तुम्हारी सायकिल के कैरियर में यह बक्सा कैसा बंधा है ? “
इस पर वह हंस कर बोला -“ कैसा इत्तिफ़ाक़ है कि तुम भी इंजीनियर और मैं भी इंजीनियर ।फ़र्क़ इतना है कि तुम गारे-मिट्टी के इंजीनियर और मैं घरेलू सामान का इंजीनियर ।बक्से में मेरे औज़ार है ।कालोनियों में फेरी लगा कर प्रेशर कुकर,गैस चूल्हा,सिलाई मशीन आदि की इंजीनियरिंग करता हूँ ।”
अपने धंधे की इंजीनियर से तुलना मुझे थोड़ा अखर गई ।उसको उसकी औक़ात में लाने के उद्देश्य से मैंने कहा-“इस फेरीवाले धंधे से भला कितनी कमाई हो पाती होगी ? गुज़ारा कैसे करते हो ?”
मेरे प्रश्न पर गंभीर होते उसने कहा-“ मेरा स्वयं का अपना घर है, घर के बाहर वाले कमरे में मेरी वाइफ़ की लेडीज़ टेलरिंग शौप है ।कम मुनाफ़े की सोच के चलते दुकान में भीड़ लगी रहती है ।साथ में एक हेल्पर भी लगा रखी है ।हम दोनों मिलकर इतना तो कमा ही लेते हैं जिससे हमारे दोनों बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं ।हमारी जितनी कमाई है उतने से हम संतुष्ट हैं ।”
उसका पलड़ा एक बार फिर ऊपर चढ़ गया था ।खटारा सायकिल मेरी भव्य कार को टक्कर दे रही थी ।अब मेरी बारी थी।अपनी कोठी की भव्यता को दिखाकर उसे प्रभावित करने के उद्देश्य से मैंने कहा-“ देखो रघु, इतने वर्षों के बाद तुम मिले हो, तो मैं तुम्हें ऐसे ही जाने नहीं दूँगा।आज तुम्हें लंच हमारे साथ ही करना होगा ।”
“अरे छोड़ो बिट्टू, खाना-वाना फिर कभी ।अभी तो मेरी सायकिल भी है, इसे कहाँ रखूँगा ? “-उसने लाचारी दिखलाते कहा
“सायकिल की चिंता छोड़ो।बेकरी वाला मेरी पहचान का है,सायकिल यहीं रख देंगे ।मेरी कार से तुम चलोगे और लंच के बाद कार से ही मैं तुम्हें यहाँ छोड़ दूँगा ।”-मैंने सुझाव देते हुए कहा ।अंत में न-नुकुर करते वह मान गया।
कार में व्याप्त चुप्पी को तोड़ते मैंने उसके पिता और दो छोटे भाइयों के विषय में पूछा ।
गहरी साँस भरते उसने कहा-“ पाँच वर्ष पूर्व माता जी की मृत्यु हो गई थी और उसके एक वर्ष बाद ही पिता भी गुज़र गए ।पिता जी के मरने के बाद उनकी कुछ एफ ॰डी थीं तथा माँ का छोटा-मोटा ज़ेवर बचा था ।क़ायदे से तो इस संपत्ति पर हम तीनों भाइयों का बराबर का हिस्सा बनता था किंतु …
उसकी बात काटते कुतूहल से मैंने पूछा-“ तुम्हारे हिस्से में कितना रूपया आया ?”
“ जानना चाहते हो कि मेरे हाथ क्या आया ।मेरे दोनों छोटे भाइयों ने कहा कि दद्दा आपका तो स्वयं का घर है पर हम दोनों किराए के मकानों में भटक रहे हैं , यदि आप अपना हिस्सा छोड़ दें तो हम दोनों भी कोई छोटी-मोटी ज़मीन ख़रीद सकते हैं ।”
“ बराबर के बँटवारे में यह नहीं देखा जाता कि किसके पास क्या है ।तुम्हारे भाइयों की यह दलील सराकर ग़लत थी।”-मैंने उत्तेजित होते हुए कहा ।
“ नहीं बिट्टू , खून के रिश्तों में फ़ैसले क़ानून से नहीं दिल से करने पड़ते है ।पिताजी कौन यह संपत्ति अपने साथ ले जा सके जो मैं ले जाऊँगा ।मैंने अपना हिस्सा छोड़ दिया ।मेरे भाई आज भी मुझे पिता समान सम्मान देते हैं ।सच पूछो तो मैंने खोया कुछ नहीं पर पाया असीम ।
मेरी कोठी का गेट आ गया था ।अंदर ले जाकर मैंने कार गैरेज में खड़ी कर दी ।लान की क्यारियों में खिले फूलों की छटा के मध्य आधुनिक डिज़ाइन की कोठी पर मुझे नाज़ है ।रघु भौंचक सा खड़ा कोठी को निहार रहा था ।अब आया ऊँट पहाड़ तले ।मेरे अहं को जैसे संतुष्टि मिल गई थी ।
“ अंदर चलोगे या यही खड़े रहने का इरादा है “—कहते हुए मैंने उसे साथ लिया और घर की घंटी दवा दी ।
दरवाज़ा पत्नी ने खोला ।मेरे साथ एक फटीचर से अजनबी को देख कर वह आश्चर्यचकित थी ,और जब मैं रघु को लेकर ड्राइंग रूम के सोफ़े पर बैठा तो वह भौंचक हो गई ।एक अजनबी के सामने पत्नी ने मुझ से तो कुछ नहीं कहा पर हतप्रभ सी वह अंदर चली गई ।
मेरे अंदर जाने पर पत्नी ने पूछा-“ यह किसे पकड़ लाए हो ?”
“वह मेरा पुराना बचपन का दोस्त है, बेकरी पर मिल गया था , आज लंच हमारे साथ करेगा ।”-मैंने एक साँस में स्थित स्पष्ट कर दी ।
“ लंच ? क्या मेरे पास जादू का चिराग़ है कि रगड़ा और लंच हाज़िर ।”
“धीरे बोलो वह कमरे में बैठा है, क्या सोचेगा ?”
“ मेरे धीरे बोलने से समस्या तो हल होने से रही ।यदि अपने बचपन के दोस्त को लंच पर लाना ही था तो कम से कम एक फ़ोन कर देना था ।”
“ तुम नाहक परेशान न हो ।मैं होटल से कुछ ले आता हूँ ।”-मैंने पत्नी को सांत्वना देते कहा ।
कमरे में रघु मेज़ पर रखे राइटिंग पैड को एकटक देख रहा था या देखने का नाटक कर रहा था ।वास्तविकता जो भी हो,मैंने उससे कहा -“ मैं ज़रा बाहर ज़रूरी काम से जा रहा हूँ ।बस दस मिनट में आ जाऊँगा तब तलक तुम यह टेलीविजन देख लो।मैंने टेलीविजन चालू कर दिया और बाहर निकल गया ।


मैं होटल से सामान ले कर आया तो देखा कि टेलीविजन चल रहा है पर रघु ग़ायब है ।मैंने इधर-उधर देखा फिर बाहर लान का चक्कर भी लगा आया पर उसका कोई अता-पता नहीं था ।मैंने पत्नी ले पूछा, किंतु उसे भी नहीं मालूम था कि वह कहाँ गया ।मैं भ्रमित सा सोफ़े पर बैठ कर उसके अचानक ग़ायब होने के बारे में सोच ही रहा था कि मेरी नज़र मेज़ पर खुले पैड पर पड़ी।पैड पर आड़ा-तिरछा कुछ लिखा था ।

मैंने कुतूहल वश पैड उठा कर देखा, उसमें यह दोहा लिखा था—-

आवत हिय हरषे नहीं नैनन नहीं सनेह ।
तुलसी वहाँ न जाइये कंचन बरसे मेह ।।


वह एक बार फिर मुझे छोटा कर के चला गया था ।〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
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