जगज्जननी के सुभगातिसुभग चरणों में
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•(पूर्व यू.प्रोफेसर)
"ऐं"
चरणकमल दो,अम्बे!
रज से आँखें सारुँ।
भुवनमोहनी सुषमा
छिन-छिन सतत निहारूँ।
जवाकुसुम साँसों के
मुरझाने से पहले ,
हार बना कर मंजुल
दर-ग्रीवा में डारूँ।
दुनिया दीन बहुत है
ले कर खाली झोली,
रहा भटकता केवल,
कितना मन को मारूँ।
पंचप्रेत-आसन पर
दयामयी उच्छ्रित हो।
पंचप्राण-दीपक से
माँ, आरती उतारूँ।
महाकाल मधु पीकर
सम्मुखीन जब नाचे,
मैं भी तब अंतर का
छिन्न सितार सँवारूँ।
चरणकमल दो, अम्बे!
रज से आँखें सारूँ ।
भुवनमोहनी सुषमा
छिन-छिन नित्य निहारूँ।
"क्लीं " (दर =शंख)
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चरणकमल दो,अम्बे!
रज से आँखें सारुँ।
भुवनमोहनी सुषमा
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जवाकुसुम साँसों के
मुरझाने से पहले ,
हार बना कर मंजुल
दर-ग्रीवा में डारूँ।
दुनिया दीन बहुत है
ले कर खाली झोली,
रहा भटकता केवल,
कितना मन को मारूँ।
पंचप्रेत-आसन पर
दयामयी उच्छ्रित हो।
पंचप्राण-दीपक से
माँ, आरती उतारूँ।
महाकाल मधु पीकर
सम्मुखीन जब नाचे,
मैं भी तब अंतर का
छिन्न सितार सँवारूँ।
चरणकमल दो, अम्बे!
रज से आँखें सारूँ ।
भुवनमोहनी सुषमा
छिन-छिन नित्य निहारूँ।
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