मरण-सिन्धु का ज्वार जिन्दगी।
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
मरण-सिन्धु का ज्वार जिन्दगी।
कहाँ चले आए हम,साथी!
सागर तूफानों का मारा।
लहरों के उद्दाम करों से,
हो जाने दो वारा-न्यारा ।
चिदानंदघन की यह चिनगी।
मरण-सिन्धु का ज्वार,जिन्दगी।
अश्रु-स्वेद-शोणित-रंगों से,
लिखित बहुत-कुछ कर्म-पटल पर ।
अमिट रहेगा जो कुछ अंकित,
नियति-नटी से नजर चुरा कर।
सुधा-गरल तम-ज्योति की सगी।
मरण सिन्धु का ज्वार,जिन्दगी।
लाखों लाख सिराए हायन ,
यों ही बैठे-बैठे तट पर ।
बहुत कटे दिन लहरें गिन-गिन,
अब तो साथी,खोलो लंगर।
सुख-दुख के गुलकंद में पगी।
मरण-सिन्धु का ज्वार,जिंदगी।
रहना केवल धुआँ-धुआँ है,
जीना उत्कट अग्नि-ज्वाल है।
बिरले जीते सृजनशील जो,
जिनसे जग का तुंग भाल है।
शत-शत आशाओं से उमगी।
मरण -सिन्धु का ज्वार,जिन्दगी।
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