संसर्ग के अभिलाष में, नेह का स्खलन
सृष्टि चक्र शाश्वत नियम,विपरितता सहज आकर्षण ।
जन्य आंगिक उत्तेजना,
गमन पथ मृदुल घर्षण ।
क्षणिक सुख पराकाष्ठा,
चरम बिंदु दैहिक मिलन ।
संसर्ग के अभिलाष में,नेह का स्खलन ।।
नेह भाष अभिलाष,
आत्मिक बिंब स्पंदन ।
काय सुगंधि मलयज सम,
आत्मसातता हिय मंडन ।
संयत ओज वेगना ,
आनंद ज्योत प्रज्वलन ।
संसर्ग के अभिलाष में,नेह का स्खलन।।
अद्यतन युग सर्व परिवेश,
तमो रजो आधिक्य ओतप्रोत ।
अंध भौतिक चकाचौंध कारण,
प्रायः विलुप्त सतो उद्गम श्रोत।
स्नेह प्रेम वास सतोस्थल,
प्रतिरूप छवि भ्रम वलन ।
संसर्ग के अभिलाष में,नेह का स्खलन ।।
आनन नयनन शब्द स्वर ,
उभार चाल ढाल आवेश ।
आमंत्रण निमंत्रण तृप्ति,
आलिंगन वासना भावेश ।
अवसान नैसर्गिक पर्याय,
अंत अशेष जलन गलन फलन ।
संसर्ग के अभिलाष में,नेह का स्खलन ।।
कुमार महेंद्र
(स्वरचित मौलिक रचना )
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