विश्वव्यापी वेद
अरुण कुमार उपाध्याय
पतञ्जलि ने महाभाष्य में लिखा है कि वेद के कोई शब्द निरर्थक नहीं हैं, उनका ७ द्वीपों में कहीं न कहीं प्रयोग अवश्य हुआ होगा-
सर्वे खल्वप्येते शब्दा देशान्तरेषु प्रयुञ्ज्यन्ते। न चैवोपलभ्यन्ते। उपलब्धौ यत्नः क्रियताम्। महान् शब्दस्य प्रयोगविषयः। सप्तद्वीपा वसुमती त्रयो लोकाः चत्वारो वेदाः साङ्गाः स रहस्या बहुधा भिन्ना एकशतध्वर्यु शाखाः सहस्रवर्त्मा सामवेदः एकविंशतिधा बाह्वृच्यं नवधाथर्वणो वेदः वाकोवाक्यं इतिहासः पुराणं वैद्यकं इत्येतावान् शब्दस्य प्रयोगविषयः। (महाभाष्य, १/१)
१. पूर्व भारत-भारत वर्ष का अर्थ है इजरायल से वियतनाम और इण्डोनेसियातक ९ खण्डों का भारतवर्ष। इन्द्र पूर्व दिशा के लोक पाल थे, अतः उनके लिए भारत के पूर्व तट से वियतनाम और इण्डोनेसिया तक के शब्द प्रयुक्त हैं। इन्द्र के हाथी को वटूरी, महावटूरी कहा है। यह थाइलैण्ड के इरावती नदी क्षेत्र का था, अतः इसे ऐरावत कहते थे। हाथी के लिए वटूरि और महावटूरि शब्द थाइलैण्ड में प्रचलित हैं। इन्द्र को बट्-महान् कहा है = जिसके पास बहुत बट् हो। थाइलैण्ड की मुद्रा को बट् कहते हैं। इन्द्र को सुत्रामा कहते थे, उनके नाम पर सुमात्रा (वर्ण विपर्यय से) द्वीप इण्डोनेसिया के पश्चिमी भाग में है। इन्द्र को अच्युत-च्युतः (जो अभी तक अपराजित है उसे भी पराजित कर सके), अतः पूर्व भाग असम के राजा को चुतिया कहते थे। उनके नागपुर को चुतिया-नागपुर कहते थे, जो अंग्रेजी अनुवाद में छोटानागपुर हो गया।
अभिव्लग्या चिदद्रिवः शीर्षा यातुमतीनाम्। छिन्धि वटूरिणा पदा महावटूरिणा पदा। (ऋक्, १/१३३/२)
इरावती धेनुमती हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या। (ऋक्, ७/९९/३)
ब्रह्माण्ड पुराण, खण्ड २, तृतीय पाद, अध्याय ७-
इरावत्याः सुतो यस्मात्तस्मादैरावतः स्मृतः। देवराजोपवाह्यत्वात् प्रथमः स मतङ्गराट्॥३२६॥
यो विश्वस्य प्रतिमानं बभूव यो अच्युतच्युत स जनास इन्द्रः॥ (ऋग्वेद, २/१२/९)
महान्-बण् महाँ असि सूर्य बळादित्य महाँ असि। महस्ते महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ असि। (ऋग्वेद, ८/१०१/११)
२. पश्चिमी भारत-पश्चिम के लोकपाल वरुण को यादस जाति का पति कहा है। यादस जाति का नाम ताजिक हो गया जो अरब से जा कर ताजिकिस्तान में बसे। वरुण के उरु नगर बनाया था जो इराक का सबसे प्राचीन नगर था। वरुण को अप्-पति कहते थे जिससे महाराष्ट्र में अप्पासाहब, आप हुआ।
उरुं हि राजा वरुण श्चकार (ऋग्वेद, १/२४/८)।
पत्नी के वेद में ४ रूप कहे हैं-महिषी (माता), ववाता (स्वामिनी), पालागली (पति-पिता क परिवारों के बीच सम्पर्क, या तोता), परिवृक्ता (स्वतन्त्र व्यक्तित्व या व्यवसाय)। अतः अरब में ४ पत्नियों का नियम हो गया। इनके ३ शब्द केवल प्राचीन अरबी में थे-पाला-गली = २ पाला के बीच की गली, तोता = बोलने वाला पक्षी, २ परिवारों के बीच सम्पर्क के लिए सदा बोलती रहती हैं, ववाता = स्वामिनी (प्राचीन अरबी, अभी केवल केन्या में प्रचलित)
परिवृक्ता च महिषी स्वस्त्या च युधङ्गमः । अनाशुरश्चायामि तोता कल्पेषु सम्मिता ॥१०॥
वावाता च महिषी स्वस्त्या च युधङ्गमः । श्वाशुरश्चायामि तोता कल्पेषु सम्मिता ॥११॥ (अथर्व, २०/१२८)
सिद्धार्थ बुद्ध (१८८७-१८०७ ईपू) के सहपाठी अबुस तथा गुरु कलाम कहलाते थे, जो दोनों अरबी के शब्द हैं। अ, ब, स-प्रारम्भ के ३ अक्षर हैं (अंग्रेजी में ए, बी, सी) अतः सामान्य ज्ञान वाले को अबुस कहते थे। वेद में ज्ञान को त्रयी कहा है। अ, ब, ज़, द--- से १, २, ३--- गिनती होती थी। १०, २०, ३०, --- की गिनती क, ल, म, न --- से होती थीं (अंग्रेजी में k, l, m, n) अतः गुरु को कलाम कहते थे। आरा का गुरु आराद कलाम था, गोरखपुर का भेरुण्ड कलाम (बौद्ध धर्म और बिहार, हवलदार त्रिपाठी सहृदय, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पृष्ठ १४-१५)
३. विदेशी नाम-बार्कलि (Berkeley)-शतपथ ब्राह्मण (१२/३/२/५), कुश्रि, तुर कावषेय (बृहदारण्यक उपनिषद्, ६/५/४)। विष्णु की तरह राजा भी पालन करता है, अतः पूरे विश्व में राजा के लिए विष्णु के नाम प्रचलित हैं। श्रीधर = सरदार, श्रीकर = सरकार, श्रीमान् = सर। यज्वा = जिहोवा। क्षमः = खम्मा (राजस्थान में)। क्षामः = छामु (ओड़िया)। वत्सल = वासल (vassal), किं = किंग (king)। महान् = हान (चीन)। सहः (शब्दसहः, सर्वसहः भी) = शाह। जनक (मिथिला के राजा) = यह मुख्य कृषि क्षेत्र था, जिससे अन्न और अन्न से जनन होता है। रुद्र = लॉर्ड (lord)। यमः = जेम्स (James)। श्रीशः या श्रेयः = सीजर (Caesar), जार (Czar)। शर्मः = जर्मन (German)।
४. विश्व में वेद शाखा- प्राचीन कृष्ण यजुर्वेद की शाखायें विश्व के सभी द्वीपों में प्रचलित थीं। याज्ञवल्क्य द्वारा शुक्ल यजुर्वेद आरम्भ होने पर इसकी १५ शाखायें केवल भारत में ही प्रचलित रहीं। शौनक के चरण व्यूह में ब्रह्म सम्प्रदाय की ८६ शाखाओं का क्षेत्र वर्णित है (शतपथ ब्राह्मण, सायण भाष्य में पण्डित दीनानाथ शास्त्री चुलेट की भूमिका)। कुछ का क्षेत्र पुराणों से समझा जा सकता है-
१. लौहित्य (पूर्वोत्तर असम), २. आलवी (किर्गिज या तुर्किस्तान की अलाई घाटी), ३. कमलाह-कम्बल, केतुमाल का कुल पर्वत (वायु पुराण, अध्याय ४४), उज्जैन से ९० अंश पश्चिम (मोरक्को के पश्चिम का तट), ४. ऋचाभ - ऋक्ष पर्वत, विन्ध्य के दक्षिण पूर्व, ५. आरुणि - अरुणशृङ्गवान् - कैलास के पश्चिम, ६. श्यामायन - केतुमाल की श्यामा नदी। ७. सुमूलिः -केतुमाल की नदी (६, ७ - वायु पुराण, अध्याय ४४)। ८. कलाप - पूर्वी हिमाचल की कल्प घाटी। ९.चुलाभि - चोल (केरल), १०. अनुकृष्ण, अनुभूमि = दोनों ययाति पुत्र अनु के क्षेत्र में जो पश्चिम की तरफ गये थे। इनके वंशज आनव या यूनानी हैं। ११. भार्गव - पूर्व भारत (मत्स्य, ब्रह्माण्ड,वामन पुराण आदि में)। १२. मधूक - मध्य एशिया का श्वेत पर्वत (वायु, मत्स्य पुराण), या यूरोप का स्विट्जरलैण्ड (ऊपर से देखने पर श्वित्र या सफेद दाग जैसा)। १३. पिंग - पिंगल नदी (महानदी डेल्टा (तोषल) के उत्तर आलि-पिंगल। १४. तुमुरु - पूर्व विन्ध्य क्षेत्र। १५. आप्रीत = बलोचिस्तान का अफ्रीदी क्षेत्र। १६. देव वर - ईरान का सुलेमान या देवकूट पर्वत। १७. पिञ्जुल कठ -क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका)। १८. औदल कठ - शक द्वीप-आस्ट्रेलिया। १९. सपिच्छव कठ - शक द्वीप। मुद्गल कठ - कश्मीर देश। २०. शृङ्गल कठ - सृज देश (थाइलैण्ड के विकङ्क या बैंगकाक के दक्षिण पूर्व श्रीसर तथा श्रीवन का सिद्ध क्षेत्र जहां इरावती तट पर ऐरावत हाथी हैं (वायु पुराण, ३७/५-२५)। २१. सौभर कठ - सिंहल देश (श्रीलंका)। २२. मौरस कठ - कुश द्वीप (विषुव के उत्तर का अफ्रीका, मुर असुर का देश मोरक्को)। २३. चुचुक कठ - यवन देश (अरब के पश्चिम, बाद में यहां के यवन ग्रीस गये। २४. हापिल कठ - यवन देश। २५. दौसल कठ -सिंहल देश। २६. धौष कठ - क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका)। २७. जृम्भ कठ - श्वेत द्वीप- स्विट्जरलैण्ड। २८. खाण्डायन-कठ के अन्त, शक द्वीप आस्ट्रेलिया का पूर्व भाग।
केवल पुष्कर द्वीप में कोई शाखा नहीं थी जहां मधु-कैटभ ने वेद नष्ट कर दिये थे। (स्कन्द पुराण, ५/३/९/३६, रामायण, किष्किन्धा काण्ड, १७/४९-५०)
५. कई ब्रह्मा-मनुष्य ब्रह्मा द्वारा शब्द वेद रूप में ज्ञान का एकीकरण हुआ। सामान्यतः स्वायम्भुव मनु को मनुष्य ब्रह्मा कहते हैं, जिनसे वैदिक युग का आरम्भ हुआ। किन्तु कई मनुष्यों का ब्रह्मा रूप में योग था। महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय (३४८) में अन्य ७ ब्रह्मा का वर्णन है।
(१) मुख्य (नारायण के मुख से)-वैखानस को उपदेश,
(२) नेत्र से-सोम को उपदेश, उनसे रुद्र, वालखिल्यों को,
(३) वाणी से-इसे शान्ति पर्व ३४९/४९ में वाणी का पुत्र अपान्तरतमा कहा है, उनके माता पिता के लिये वाणी-हिरण्यगर्भाय नमः यज्ञ में पाठ होता है। उनसे त्रिसुपर्ण ऋषि को उपदेश। गर्ग संहिता (७/४०/३५) में अपान्तरतमा ऋषि द्वारा हरिण उपद्वीप (मलगासी द्वीप, मृगव्याध या मृगतस्कर = मगाडास्कर) में तप, ब्रह्मवैवर्त्त पुराण (१/८/२७) में अपान्तरतमा ऋषि का ब्रह्मा के गले से प्रादुर्भाव), (१/१२/४) में ब्रह्मा - पुत्र, (१/२२/१७) में अपान्तरतमा नाम की निरुक्ति, तैत्तिरीय आरण्यक (८/९) सायण भाष्य में अपान्तरतमा का जन्मान्तर में कृष्ण द्वैपायन व्यास बनना ।
(४) आदि कृत युग में (श्लोक ३४) कर्ण से ब्रह्मा की उत्पत्ति-आरण्यक, रहस्य. और संग्रह सहित वेद क्रम से स्वारोचिष मनु, शंखपद, दिक्पाल, सुवर्णाभ को उपदेश।
(५) आदि कृत युग में (श्लोक ४१) नासिका से ब्रह्मा की उत्पत्ति- क्रम से वीरण, रैभ्य मुनि, दिक्पाल कुक्षि को उपदेश।
(६) अण्डज ब्रह्मा (शान्ति पर्व ३४९/१७ में भी)-से बर्हिषद् मुनि, ज्येष्ठसामव्रती हरि, राजा अविकम्पन को उपदेश।
(७) पद्मनाभ ब्रह्मा से दक्ष, विवस्वान्, वैवस्वत मनु, इक्ष्वाकु को उपदेश। यह सम्भवतः मणिपुर के निकट हिमालय के पूर्व भाग में थे। उनके नाम पर त्रिविष्टप् का पूर्व भाग ब्रह्म विटप (ब्रह्मपुत्र नदी का स्रोत क्षेत्र), ब्रह्मपुत्र, ब्रह्म देश (बर्मा, अभी म्याम्मार = महा + अमर) हैं।
वेद तथा पुराणों में नवम ब्रह्मा का भी उल्लेख है जो पुष्कर द्वीप में हुए थे। पुष्कर में कमल होता है, अतः ब्रह्मा को विष्णु के नाभि कमल पर स्थित कहा है। यह पद्मनाभ ब्रह्मा के लिए भी है। भारत अजनाभ वर्ष था, उसकी नाभि मणिपुर है, जिसकी सीमा पर ब्रह्म देश है।
त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत। मूर्ध्नो विश्वस्य वाधतः॥१३॥
तमुत्वा दध्यङ्गृषिः पुत्र ईधे अथर्वणः। वृत्रहणं पुरन्दरम्॥१४॥ (ऋक्, ६/१६)
न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे ब्रह्मणः स्थानमुत्तमम्। तस्मिन्निवसति ब्रह्मा पूज्यमानः सुरासुरैः॥
(विष्णु पुराण, २/२/८५, ब्रह्माण्ड पुराण, ८/८/७)
न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे पद्मवत् तेन स स्मृतः (मत्स्य पुराण, १२३/३९)
कश्यप ब्रह्मा-कश्यप के बाद १० युग = ३६०० वर्षों तक देव असुरों में युद्ध चला जिसके बाद वैवस्वत मनु हुए (१३९०२ ईपू)। अतः कश्यप का समय १७,५०२ ईपू. होगा। वे स्वायम्भुव मनु के बाद दूसरे व्यास हुए। इस प्रसंग में उनको भी कई बार ब्रह्मा या प्रजापति कहा गया है।
राजस्या ब्रह्मणोंऽशेन मारीचः कश्यपोऽभवत्॥ (ब्रह्माण्ड, २/३/३/१०५)
कश्यपो ब्रह्मणोंऽशश्च पृथिव्या अदितिस्तथा॥ (ब्रह्माण्ड, २/३/७१/२३८)
स्कन्द पुराण, अध्याय (६/१७९/५४) के अनुसार ३ पुष्कर हैं-
ज्येष्ठ-पुष्कर द्वीप में न्यग्रोध नामक स्थान के निकट।
मध्य-उज्जैन के १२ अंश पश्चिम उजबेकिस्तान का बुखारा। एवं पुष्करमध्येन यदा याति दिवाकरः।
त्रिंशद् भागन्तु मेदिन्यास्तदा मौहूर्त्तिकी गतिः॥ (विष्णु पुराण, २/८/२६)
कनीयक-अजयमेरु (अजमेर) का पुष्कर जहां सरस्वती धारा बहती थी। यह इन्द्रप्रस्थ पुष्कर था। महाभारत युद्ध में द्वारका की नारायणी सेना लेने के बदले दुर्योधन ने यह पुष्कर द्वारका को दिया था।
पद्म पुराण (१/१५/१५१, १/१९-२०), अग्नि पुराण (११/८) में भी ३ पुष्कर वर्णित हैं।
६. भारतीय या विदेशी-अंग्रेजी शासन में प्रचार आरम्भ हुआ कि आर्य विदेश से आये थे तथा सिन्धु घाटी में प्रवेश किया। बाद में दक्षिण भारत के द्रविड़ों को वैदिक बनाया। इसके प्रमाण के लिए अफगानिस्तान या ईरान के कुछ सन्दर्भों का उल्लेख करते हैं। कहते हैं कि दक्षिण भारत की किसी नदी का नाम वेद में नहीं है।
(१) इन्द्र को पश्चिमोत्तर के आर्यों का मुख्य देवता कहा जाता है। पर इन्द्र पूर्व दिशा के लोकपाल हैं और उनसे सम्बन्धित वैदिक शब्द भारत के पूर्व तट से इण्डोनेसिया और वियतनाम तक ही प्रचलित हैं।
(२) हिमालय-वेद में हिमालय और भारत की नदियों का ही उल्लेख है। अरब तक भारत वर्ष ही कहा जाता था। एशिया या विश्व के अन्य पर्वतों नदियों का उल्लेख नहीं है।
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा (ऋक्, १०/१२१/१, अथर्व, ४/२/३)
(३) भागवत माहात्म्य के अनुसार भक्ति तथा उसकी सन्तान ज्ञान-वैराग्य का जन्म द्रविड़ में हुआ, वृद्धि कर्णाटक में हुई, महाराष्ट्र तक प्रचार हुआ तथा गुर्जर आते आते समाप्त हुई। बाद में उत्तर भारत में प्रचार हुआ।
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ।ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥४५॥
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥४८॥
तत्र घोर कलेर्योगात् पाखण्डैः खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥४९॥
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥५०॥
(पद्म पुराण उत्तर खण्ड श्रीमद् भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)
आकाश में अप् (द्रव) से सृष्टि हुयी। अतः ज्ञान रूपी द्रव की जहां उत्पत्ति हुयी वह द्रविड़ हुआ। वेद का अर्थ है, कर्ण आदि ५ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान। अतः शब्द के अर्थों का जहां विस्तार हुआ, वह कर्ण+आटक हुआ। आज भी कर्णाटक में ही वेद पर सबसे अधिक शोध हो रहा है (इसका शोध पत्रों या सरकारी अनुदान से कोई सम्बन्ध नहीं है)। शब्द मुख्यतः भौतिक पदार्थों के नाम थे जो ब्रह्मा द्वारा दिये गये थे (मनुस्मृति, १/२३)। शब्दों के आधिदैविक, आध्यात्मिक अर्थों का विस्तार ही भागवत माहात्म्य में बृद्धि कहा है। जहां तक प्रभाव क्षेत्र होता है उसे महर् कहते हैं जिससे महल हुआ है (मनुष्य का निवास)। अतः जहां तक वेद का विस्तार हुआ, वह महाराष्ट्र हुआ। नहीं तो वह राष्ट्र तथा भारत महाराष्ट्र होता।
(३) ऋग्वेद के प्रथम सूक्त देखने से ही यह स्पष्ट है। उसके २ शब्दों दोषा-वस्ता (रात-दिन) का प्रयोग केवल तमिल-तेलुगू में है।
शिल्पशास्त्र के अनुसार विष्णु ने सबसे पहले नगरों का निर्माण किया, अतः उनको उरुक्रम कहते हैं। नगर अर्थ में उरु का प्रयोग केवल दक्षिण भारत में है-एलुरु, बंगलूरु, तन्जाउर, मंगलूर आदि।
शं नो विष्णुरुरुक्रमः (ऋग्वेद, १/९०/१)
बाद में पश्चिम के लोकपाल वरुण ने भी नगर बनाये-उरुं हि राजा वरुण श्चकार (ऋग्वेद, १/२४/८)। यह इराक का सबसे पुराना नगर था।
समुद्र में प्रवेश करने वाले को सुपर्ण तथा तट भूमि का पालन करने वाले को रेळ्हि (रेड्डी) कहा गया है। कृषक के लिए रेड्डी केवल आन्ध्र प्रदेश में प्रचलित है, जहां दक्षिण भारत की सबसे अधिक समतल कृषि भूमि है। नौसेना के मुख्य को सुपर्ण (सुवन्ना) नायक कहते थे। स्पष्टतः ये शब्द पंजाब या उत्तर प्रदेश में नहीं हो सकते जहां समुद्र नहीं है।
एकः सुपर्णः स समुद्रमाविवेश स इदं भुवनं वि चष्टे ।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं, माता रेऴ्हि स उ रेऴ्हि मातरम् ॥ (ऋक्, १०/११४/४)
(४) यजुर्वेद की प्राचीन तैत्तिरीय संहिता केवल दक्षिण भारत में ही प्रचलित थी जहां के एक जनपद निवासियों का नाम तैत्तिरक है-
अथापरे जनपदा दक्षिणापथवासिनः ॥४७॥
तथा तैत्तिरिकाश्चैव दक्षिणापथवासिनः॥५०॥(मत्स्य पुराण, अध्याय ११४)
(५) ज्योतिष में भी प्राचीन पितामह सिद्धान्त दक्षिण भारत में तथा बाद के विवस्वान् द्वारा सूर्य सिद्धान्त उत्तर भारत में प्रचलित है (बार्हस्पत्य संवत्सर)।
७. सप्तसिन्धु-यह केवल पश्चिमोत्तर भाग में ही नही है। ऋग्वेद में ३ सप्त सिन्धु का उल्लेख है जो भारत के मध्य, पूर्व और पश्चिम भाग के हैं। यहां सभी नदियों को सिन्धु ही कहा गया है। वेद आकाश के पूरे विश्व, पृथ्वी तथा मनुष्य रूप विश्व प्रतिमा का वर्णन करता है। अतः इन नदियों को केवल भारत की पश्चिमोत्तर सीमा में ही नहीं मानना चाहिये। अंग्रेज तथा उनके भक्त केवल भारत के पश्चिम का वर्णन करते हैं जिससे भारतीयों को भी अंग्रेजों की तरह पश्चिमी आक्रमणकारी कहा जा सके।
(१) सन्दर्भ-त्रिः सप्त सस्रा नद्यो महीरपो वनस्पतीन् पर्वताँ अग्निमूतये।
कृशानुमस्तॄन् तिष्यं सधस्थ आ रुद्रं रुद्रेषु रुद्रियं हवामहे॥८॥
सरस्वती सरयुः सिन्धुरूर्मिभिर्महो महीरवसा यन्तु वक्षणीः।
देवीरापो मातरः सूदयित्न्वो घृतवत्पयो मधुमन्नो अर्चत॥९॥ (ऋक्, १०/६४)
प्र सु व आपो महिमानमुत्तमं कारुवोचाति सदने विवस्वतः।
प्र सप्तसप्त त्रेधा हि चक्रमुः सृत्वरीणामति सिन्धुरोजसा॥१॥
इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकिये शृणुह्या सुषोमया॥५॥
तृष्टामया प्रथमं यातवे सजूः सृसर्त्वा रसया श्वेत्या त्या।
त्वं सिन्धो कुभया गोमती क्रुमुं मेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे॥६॥
ऋजीत्येनी रुशती महित्वा ज्रयांसि भरते रजांसि।
अदब्धा सिन्धुरपसामपस्तमाश्वा न चित्रा वपुषीव दर्शता॥७॥
स्वश्वा सिन्धुः सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती।
ऊर्णावती युवतिः सीलमावत्युताधि वस्ते सुभगा मधुवृधम्॥८॥ (ऋक्, १०/७५)
वस्त्रां सुवस्त्रां (वास्तुं सुवास्तुं) गौरीं च कम्पनां स हिरण्वतीम्॥२५॥
वरां वीरकरां चापि पञ्चमी च महानदीम्॥२६॥ (महाभारत, भीष्म पर्व, अध्याय ९)
(२) मध्य भारत की सप्तनदी-स्नान करते समय एक मन्त्र पढ़ा जाता है, जिसमें दक्षिण भारत की भी नदियां हैं।
गङ्गे यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु॥
यह वेद मन्त्र पर आधारित है-
इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकिये शृणुह्या सुषोमया॥ (ऋक्, १०/७५/५)
असिक्नी का अर्थ है-कृष्णा रात्रि-असिक्नीः कृष्णा ओषधी (अथर्व, ८/७/१)
असिक्न्यां यजमानो न होता (ऋक्, ४/१७/१५)
इस नाम की नदियां हैं-कृष्णा या कृष्णावेणी, ताम्रपर्णी (कावेरी)
सुषोमा = सुखदायक। इसी अर्थ में नर्मदा नाम है। इसका अन्य नाम है, रेवा। रेवा पश्चिम दिशा में जाती है अतः पश्चिमी वायु को रेवा-मरुत् कहते हैं। वेद में इसे एवयामरुत् कहा है। एवा का अर्थ गति है, विशेषकर नदी की गति-
रमध्वं मे वचसे सोम्याय, ऋतावरी रूपमुहूर्तमेवैः (ऋक्, ३/३३/५)।
मरुत्वते गिरिजा एवयामरुत् (ऋक्, ५/८७/१)
गोदा (वरी), गोऋजीका अर्थ में आर्जीकिया है।
इमां हि वां गो-ऋजीका मधूनि (ऋक्, ३/५८/४)
पिबा तु सोमं गो-ऋजीकमिन्द्र (ऋक्, ६/२३/७)
गो (गौ, सम्पत्ति, वाक्, ज्ञान) आदि देने वाली अर्थ में गोदा है। इसी अर्थ में गोतमी है-(ऋक्, १/७८/१-५)
(३) पूर्वी भारत की सप्तनदी-ब्रह्मपुत्र या लोहित, इरावती (इरावदी, ऐरावती), सालवीन (धेनुमती, स्तनविन या थानवीन), मेकांग (मा गङ्गा), लाल नदी (इसकी सहायक कृष्णा नदी, तथा श्वेत = लो नदी)। लाल नदी भी त्रिवेणी संगम की तरह है।
इरावती-वायु पुराण अध्याय ३६-३७ के अनुसार यह भारत के पूर्व भाग की नदी है। इसके क्षेत्र के हाथी को ऐरावत कहा गया है जिसे श्वेत हाथी कहा जाता है। बर्मी भाषा में इरावती या ऐरावती का यही अर्थ है-हाथी नदी। वेद में इरावती के साथ धेनुमती नाम भी आता है। यह वर्तमान थालवीन (सालवीन) नदी है जो इरावती के समानान्तर हिमालय के पूर्वी भाग से समुद्र तक जाती है। इसका बर्मी भाषा में वृक्ष अर्थ है। इसके क्षेत्र में बहुत से वन्स्पति और जन्तुओं का आश्रय है, अतः इसे धेनुमती कहते थे। शक द्वीप (आस्ट्रेलिया) में भी धेनुका नदी कही गयी है जो दक्षिण पूर्व एशिया की सीमा पर है।
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। (ऋक्, ५/६९/२)
वाचं सु मित्रावरुणाविरावती पर्जन्यश्चित्रां वदति त्विषीमतीम् (ऋक्, ५/६३/६)
इषीमती = इष्ट की पूर्ति करनेवाली, कामधेनु।
इरावती धेनुमती हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या। (ऋक्, ७/९९/३, वाज. यजु, ५/१६)
(४) पश्चिम की सप्तनदी-कुभा (काबुल), आमू दरिया (यक्षु), इरान की करुन नदी (क्रुमु), सरथ (हरित या हेरात, स का ह), मरुद्वृध (अरब की वादी, मरुभूमि में पुरानी नदी धारा), रसा और श्वेत्या (दजला, फुरात, यूफ्रेटिस, टाइग्रिस) है।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकिये शृणुह्या सुषोमया॥५॥
तृष्टामया प्रथमं यातवे सजूः सुसर्त्वा रसया श्वेत्या त्या।
त्वं सिन्धो कुभया गोमती क्रमुं मेहन्त्वा सरथं याभिरीयसे॥६॥
यक्षु को उर (वरुण निर्मित इराक का प्राचीन नगर-उरुं हिराजा वरुणश्चकार-ऋक्, १/२४/८) के निकट या यज्ञभूमि (राय = धन, कृषि उत्पादन भाग) कहा गया है-
पुरोळा इत्तुर्वशो यक्षुः आसीद् रायेमत्स्यासो निशिता अपीव॥६॥अजासश्च शिग्रवो यक्षवच्च बलिं शीर्षाणि जभ्रुरश्व्यानि॥१९॥ (ऋक्, ७/१८/६, १९)
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