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भले जो रक्षकों पर लोग पत्थर फेंकते हैं।

भले जो रक्षकों पर लोग पत्थर फेंकते हैं।

डॉ रामकृष्ण मिश्र
भले जो रक्षकों पर लोग पत्थर फेंकते हैं।
लगाकर आग ऐसे हाथ कितने सेंकते हैं।।
खुले मे बोलना खुलकर मना होता रहा है।
छुपा कर तीर ऐसे लक्ष्य कितने बेधते हैं।।
दुखी को और तड़पाना व्यसन ही तो रहा है।
सरलतम को ,प्रवंचित को खुशी से छेड़ते हैं।।
जमाने की हवा के पंख की पहचान करनी है।
यहाँ कुछ लोग हैं जो फूल से ही खेलते हैं।।
पसीने में घुली है बूँद शोणित की समझ लो।
कई दिन रात ऐसी झिड़किराँ बस झेलते हैं।।
खुले आकाश का आँगन उन्ही से हो रहा लज्जित।
 न कोई एक मुट्ठी रोशनी तक भेजते हैं।।
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