क्यों नहीं हम क्रन्दनों के गाँव चलते हैं ।
डॉ रामकृष्ण मिश्र
क्यों नहीं हम क्रन्दनों के गाँव चलते हैं ।
बाँट आएँ उन्हे थोड़ी छाँव चलते हैं।
राजनीतिक हवा में तो नमी कम होती।
देख लेंगे कहाँ हो ठहराँव चलते हैं ।।
धूप ने बेदखल कर दी है अभी साँसे ।
हवा के रुख में करें बदलाव चलते हैं।।
सुना है आकाश से राहत बरसती है।
देख लें हे कहाँ तक है नाव चलते हैं।।
जंगलों में भूत उजले घूमते रहते।
देखना है घाटियों से लगाव चलते हैं।।
कोटरों में वनाली के प्राण वसते हैं।
जलाते हैं कौन यहाँ अलावा चलते है।।
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क्यों नहीं हम क्रन्दनों के गाँव चलते हैं ।
बाँट आएँ उन्हे थोड़ी छाँव चलते हैं।
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देख लेंगे कहाँ हो ठहराँव चलते हैं ।।
धूप ने बेदखल कर दी है अभी साँसे ।
हवा के रुख में करें बदलाव चलते हैं।।
सुना है आकाश से राहत बरसती है।
देख लें हे कहाँ तक है नाव चलते हैं।।
जंगलों में भूत उजले घूमते रहते।
देखना है घाटियों से लगाव चलते हैं।।
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