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मुझे होता गर्व मैं हूॅं एक गृहिणी

मुझे होता गर्व मैं हूॅं एक गृहिणी

धरा पर जितने भी जीव सृष्ट हुए हैं , उन सारे जीवों में मानव सर्वप्रिय , सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ है , क्योंकि मानव का यह जीवन दया, उपकार , सभ्यता शिष्टता निष्ठा , सेवा , विश्वास और आस्था पर टिका हुआ होता है । फलत: बहुत सारे मानव देवी और देव की पूजा करते हैं तथा स्वयं पर भगवान का भक्त होने का गर्व करते हैं । किंतु बहुत से मानवों की धारणा यह बनी हुई होती है कि वे भगवान की पूजा नहीं , बल्कि भगवान के भक्तों की सेवा करने में बहुत बड़ा गर्व महसूस करते हैं ।
हमारी माताऍं , बहनें , बेटियाॅं इन दोनों श्रेणियों से भी ऊपर पहुॅंच जाती हैं और पूरे घर का बोझ अपार आदर और स्नेह के साथ हर्ष विभोर होकर हॅंसती खिलखिलाती हुई कंधे पर पर लेकर चलती हैं । वे कभी भी किसी को यह महसूस नहीं होने देतीं , कि वे इतना बड़ा भार मेरे कंधे पर लदा है ।
उन्हें अपने परिवार की सेवा करने में अपार हर्ष होता है ।
वे अपने आप को परम सौभाग्यशाली समझती हैं और वे बड़े गर्व से कहती भी हैं कि मुझे होता है गर्व कि मैं एक गृहिणी हूॅं ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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