जिंदगी तेरे नाम
अवध किशोर मिश्रकितना अपरिहार्य?कितना अकिंचन?
है यह मानव जीवन!
सावन की भीगी घटा- सी
किसी धुंधले अतीत की कथा- सी
किसी कवि की कल्पना में आए
विधवा की बीती व्यथा- सी,
लगता है कितना अटपटा
यह हो रहा परिवर्तन!
कितना अपरिहार्य? कितना अकिंचन?
बेबी की गुड़िया, पप्पू की गुड्डी
उड़ते उन्मुक्त गगन में
कागज की नाव बहाना
खटकते आज भी नयन में
पर दीखता नहीं वह-
स्नेहिल भाग्य- नर्तन!
कितना अपरिहार्य? कितना अकिंचन?
है यह मानव जीवन!
कूड़े के ढेर पर सोकर
वैभव- वैभव- विलास में खोकर
देखा है जिंदगी को किसी
चौराहे से अन्मस्यक होकर
हर जगह, हर तरफ
कितना अशांत जीवन!
कितना अपरिहार्य? कितना अकिंचन? है यह मानव जीवन!
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