जीवात्मा हंस, वसु, होता और अतिथि कैसे हैं ?
(दिवंगत बड़े भाई को छोटे भाई की आदर्श श्रद्धांजलि)
मेरा यह लेख अपने पूज्य भ्राता जी,उपनिषदों के ज्ञाता और वैदिक मूल्यों के प्रति समर्पित होकर जीवन जीने वाले प्रो0 विजेन्द्र सिंह आर्य जी के प्रति समर्पित है । जिनका विगत 1 नवंबर 2024 को देहांत हो गया था। मृत्यु से सही 2 दिन पूर्व जब मैं अपने अनुज डॉ राकेश के साथ उनसे मिला तो वार्ता का क्रम आगे बढ़ता चला गया। जिसमें वह हमको बता रहे थे कि जीवन और मृत्यु के भेद को समझने के लिए निम्न पंक्तियों पर ध्यान दो :-
"कफन बढ़ा तो किस लिए नजर तू डबडबा गई।
श्रृंगार क्यों सहम गया , बहार क्यों लजा गई ?
न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ, सिर्फ इतनी बात है,
किसी की आंख खुल गई ,किसी को नींद आ गई ।।
वार्ता के इसी क्रम में उन्होंने कठोपनिषद में यम नचिकेता के संवाद पर जाकर वार्ता को केंद्रित कर लिया। कहने लगे कि यदि उस संवाद को समझा जाए तो पता चलता है कि जीवात्मा ही 'हंस' है। जीवात्मा ही 'वसु' है। जीवात्मा ही 'होता' और 'अतिथि' है। जब जीवात्मा इस देह रूपी अयोध्या नगरी में रहते रहते अपना उत्तरोत्तर विकास करता जाता है तो ये अवस्थाएं उसे स्वाभाविक रूप से मिलती जाती हैं। जीवात्मा की हंस की पवित्र अवस्था वह है जिसमें वह संसार रूपी पानी में रहकर भी भीगता नहीं है। यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे हंस पानी में रहकर भी पानी में नहीं भीगता है । यह अवस्था ब्रह्मचारी मनीषियों की अवस्था है। विद्वानों की अवस्था है। इस अवस्था को प्राप्त कर लेने वाला मनुष्य किसी भी प्रकार से अपने आप को संसार में लिप्त नहीं देखता है। वास्तव में यह जीवात्मा की पहली परिष्कृत अवस्था है। जिसमें रहने वाले व्यक्ति के अभ्यास को देखकर विवेकी जन कह दिया करते हैं कि यह नर देह में वास कर रहा है। इसी को ब्रह्मचर्य की अवस्था कहते हैं।
शरीर में जीवात्मा की दूसरी अवस्था 'वसु' की अवस्था कही जाती है। इसमें मनुष्य वसु की भांति अपना जीवन व्यतीत करता है, वसु वास करने वाले को कहते हैं । स्पष्ट है कि इस अवस्था को प्राप्त जीवात्मा स्वयं भी वसता है और अपने सात्विक जीवन भावों के माध्यम से दूसरों को भी बसाता है। वह सब के प्रति सद्भाव और समभाव रखने वाला होता है। उसकी यह अवस्था बड़ी पवित्र होती है। यही कारण है कि विद्वान लोग कहते हैं कि वह नर देह से उत्तम शरीर में वास कर रहा है। इसे वर देह भी कहते हैं। यह गृहस्थ की अवस्था है। गृहस्थ में रहने वाले नरों की यही अवस्था होती है। वह स्वयं भी उन्नति करते हैं और दूसरों की उन्नति में सहायक भी बनते हैं। वेद का भी हमें यही आदेश है कि स्वयं तो वृद्धि करो ही दूसरों की वृद्धि में सहायक भी बनो।
भ्राता श्री ने बताया कि जीवात्मा की तीसरी अवस्था 'होता' की है। जब हम हवन करते हैं तो सामग्री को निरंतर हवन में अर्पित समर्पित करते जाते हैं । हमारा यह भाव लोक कल्याण के लिए होता है। उसमें हमारा कोई स्वार्थ नहीं होता। परमार्थ के लिए हम सारा कुछ कर रहे होते हैं। यज्ञ की यह पवित्र भावना जब हमारे जीवन में उतर आती है तो हमारी अवस्था संसार के लिए होता की बन जाती है। इस अवस्था को प्राप्त व्यक्ति अपने आप को संसार और समाज के लिए समर्पित कर देता है। वह संसार में रहता तो है पर त्याग भाव के साथ रहता है। परोपकार और परमार्थ उसके जीवन के आवश्यक अंग बन जाते हैं। उसका भाव बन जाता है कि उसका अपना कुछ नहीं है और जो कुछ भी अपने पास है, वह भी दूसरों के लिए समर्पित कर देना चाहिए। उसके पास जो कुछ भी होता है, उसे भी वह परमात्मा की देन समझता है। यहां तक कि यदि उसके पास यश और कीर्ति भी है तो उसे भी वह परमपिता परमेश्वर के श्री चरणों में समर्पित कर देता है। अहंकारशून्यता उसके जीवन का अंग बन जाती है। ऐसा मनुष्य समझ लेता है कि निरपेक्ष सत्य केवल परमात्मा ही है। इस अवस्था को वानप्रस्थ की अवस्था भी कहते हैं।
इससे और अधिक विकसित चौथी अवस्था अतिथि की है। मनुष्य इस देह के वास को अतिथि की भांति समझने लगता है। जो कुछ भी उसके पास है , उसे वह संसार के लिए देने लगता है। बांटने लगता है। ज्ञान रूपी धन के भंडार खोल देता है , जिससे लोगों का कल्याण हो। यही कारण है कि अतिथि की अवस्था में जीने वाला विद्वान घूम-घूम कर लोगों के पास अतिथि के रूप में ही उपस्थित होकर उन्हें अपना ज्ञान रूपी धन बांटता है। इसलिए विद्वानों को ही हमारे वैदिक ऋषि अतिथि की संज्ञा दिया करते थे। अतिथि रूप में काम करने वाला मनुष्य बहुत ऊंचाई को प्राप्त कर लेता है। इस श्रेणी के लोग ही ऋषि ,महर्षि ब्रह्म ऋषि आदि हुआ करते थे। इसी को हमारे यहां संन्यास की अवस्था भी कहा जाता है और इसको ही व्योमदेह भी कहते हैं। ऐसा महामानव अपनी आत्मा को रथी और देह को रथ समझकर कार्य करता है। वह जीवन को आश्रमों की यात्रा मान लेता है और इस यात्रा का पथिक बनकर 'ज्ञानात्मा' से 'महानात्मा' और फिर 'महानात्मा' से 'शान्तात्मा' हो जाता है। उपनिषद का ऋषि कहता है कि उसी में तीनों नचिकेत अग्नियां प्रदीप्त होती हैं, और वही 'ब्रह्मयज्ञ' के वास्तविक अर्थ को समझता है।
इतने ऊंचे संवाद को सुनकर मेरी और अनुज राकेश की आत्मा प्रसन्न हुई। आज जब संवाद को याद करता हूं तो आंखों में बरबस की आंसू आ जाते हैं। सचमुच हमने अपने भाई को नहीं अपितु वैदिक मूल्यों की एक अनमोल निधि को खो दिया है। जिसका यह उपदेश ,संदेश और साक्षात रूप में कभी नहीं मिलेगा। मेरे पूज्य भ्राता जी जीवन और मृत्यु के भेद , यथार्थ एवं वास्तविकता को ह्रदयंगम करने में पारंगत थे। वे संगठन निर्माण में अनुकरणीय विशिष्टता रखते थे। इस संबंध में उनको विलक्षण प्रतिभा का धनी कहा जा सकता है। उन्होंने अपने जीवन में अनेक संगठनों का निर्माण किया और उनका नेतृत्व कुशलता पूर्वक किया।
ऋषियों के इस जीवन दर्शन को उन्होंने काव्यात्मक शैली में अपनी लगभग आधा दर्जन पुस्तकों के माध्यम से संकलित किया और ज्ञानयज्ञ के एक महानात्मा के रूप में उसे निशुल्क लोगों में वितरित करते रहे।
जब पूज्य भ्राता जी की श्रद्धांजलि सभा का आयोजन दिनांक 7 नवंबर 2024 को किया गया तो उसमें अनेक गणमान्य लोगों की उपस्थिति रही। जिनमें स्वामी ओमानंद जी महाराज, आनन्द स्वामी जी, देव मुनि जी, स्वामी प्राण देव जी, आचार्य वेद प्रकाश जी , आचार्य विक्रम देव शास्त्री जी , कुलदीप विद्यार्थी जी जैसे विद्वानों का सान्निध्य तो रहा ही, साथ ही राष्ट्र निर्माण पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ आनंद कुमार और हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बाबा नंदकिशोर मिश्र जी की भी उपस्थिति रही। श्रद्धांजलि देने वालों में कांग्रेस के नेता अजय चौधरी, सपा नेता फकीरचंद नागर, भाजपा के दादरी के विधायक तेजपाल सिंह नागर , मुकेश नागर एडवोकेट, सुनील भाटी हरियाणा गऊ सेवा संघ के अध्यक्ष शमशेर सिंह आर्य, अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखिका मृदुल कीर्ति (ऑस्ट्रेलिया) सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा मॉरीशस के संरक्षक डॉक्टर गंगू जी, नैरोबी ( केन्या) आर्य समाज के प्रधान श्री राजेंद्र सिंह, नेपाल स्थित पशुपतिनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी अर्जुन प्रसाद बस्तोला आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
- देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट अध्यक्ष : उगता भारत
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