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जन -जन की आस्था का महापर्व

जन -जन की आस्था का महापर्व

डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
" यथा प्रकाशयत्येकः यही कृत्ष्ण्म लोकमिमम् रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्ष्णं प्रकाशयति भारत ॥
श्रीमद्भागवत गीता 13/33
अर्जुन को कर्म योग के उपदेश देते समय श्री कृष्ण ने कहा -" अर्जुन सूर्य की तरह कर्मयोग में निरत हो जाओ ।सूर्य देवता है और संपूर्ण जगत के परम आराध्य हैं
त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्ण तनय शाम्ब ने मगध में प्रथम सूर्योपासना की थी।यह कथा छठ ब्रत से जुड़ी है । शाम्ब को श्री कृष्ण ने गलित कुष्ठ का शाप दे दिया था । श्री कृष्ण द्वारा प्रदत कुष्ठ व्याधि के शाप के निवारणार्थ शाम्ब ने मगध के भू भाग पर यज्ञ किया था जो छः दिनों तक चला था । यज्ञ की पूर्ति तो रात में ही हो गई थी ,परन्तु सूर्य के दर्शन के बिना दिन की समाप्ति नहीं हो सकती , इसीलिए इस ब्रत की पुर्ति उगते सूर्य के अर्घ्य से
होती है ।
अग्नि पुराण के अनुसार विष्णु के नाभि -कमल से ब्रह्मा जी का जन्म हुआ । ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि ,मरिचि से महर्षि कश्यप का जन्म हुआ । महर्षि कश्यप से सूर्य की उत्पति हुई । हनुमान जी ने सूर्य के सानिध्य में रह कर शिक्षा प्राप्त की थी । इसके लिए हनुमान जी को पीछे कि गति से चलते रहना पड़ा था । कुंती के गर्भ से महावीर कर्ण कवच -कुंडल सहित जन्मे थे । वनवास काल में सूर्य की उपासना पाण्डवों ने भी की थी । हमारे ग्रंथ कहते हैं कि अत्रि मुनि की पत्नी ने भी सूर्योपासना की थी । राजा अश्वपति ने सूर्य की उपासना करके सावित्री देवी कन्या के रूप में पाया था जिसने यमलोक से अपने पति सत्यवान को वापस लाकर सतीत्व की मर्यादा स्थापित की थी ।भगवान कृष्ण भगवान सूर्य की उपासना करने के बाद सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था । बाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान राम ने भी आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ कर विजय प्राप्त की थी । पुराणों के अनुसार उनकी पत्नी संज्ञा से अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ जो देवताओं के वैद्य माने गए । अश्विनी कुमारों ने च्यवन ऋषि के वृद्ध शरीर को किशोर शरीर में परिणत कर सुंदरता का वरदान दिया ।
कर्म के वास्तविक अधिकारी सूर्य को जानकार भगवान ने उनको सर्वप्रथम कर्म का उपदेश दिया ।भगवान कृष्ण कहते हैं ,
" इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत ॥
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टःपरंतप ॥
श्री मद्भागवत गीता 4/1-3
" मैंने इस अविनाशी योग के बारे में विवस्वान सूर्य को बताया था । सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इच्छाकु से कहा ।"
हे अर्जुन ! इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इसे योगी एवं राजर्षियों ने जाना । किंतु उसके बाद यह योग पृथ्वीलोक से लुप्त प्राय हो गया । तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है । इसलिए यह पुरातन योग आज मैंने तुमको कहा है । भगवान के द्वारा दिए गए कर्म योग के उपदेश का सूर्य ने पालन किया । सूर्य का कर्मपथ ही संसार का जीवन पथ है । सुबह समय से उदित होने के साथ समय से अस्त होना इनका कर्म विधान है ।
जनक आदि राजाओं तथा संतो ,ऋषियों ने कर्मयोग का आचरण कर परम सिद्धि प्राप्त की थी । कालांतर में जब यह योग लुप्त प्राय हो गया ,तब भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया उत्तर वैदिक साहित्य तथा रामायण ,महाभारत में भी सूर्य की प्रार्थना मिलती है । गुप्त काल के पूर्व में ही सूर्योपासकों का एक संप्रदाय बन चुका था ,जो सौर नाम से प्रसिद्ध था और सौर संप्रदाय के उपासक अपने उपास्य देव सूर्य को आदिदेव के रूप में मानते थे । भौगोलिक दृष्टि से भारत में सूर्य उपासना व्यापक थी । मथुरा से मुल्तान तक ,कश्मीर से कोणार्क तक ,उज्जैनी आदि सूर्य उपासना के प्रधान केंद्र थे ।
वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति में सूरज की किरणों में विटामिन डी प्रचुर मात्रा में मिलता है । इसलिए सुबह की धूप सेवन का विधान है ।
विश्व के वैसे वैज्ञानिक जो कल तक हम पर हँसते थे ,वे आज भारतीय विज्ञान पर लट्टू हैं ।उर्जा का अक्षय स्रोत सूर्य ही हैं ,यह ज्ञान हमें सृष्टि के आरम्भ से ही प्राप्त है ।इसीलिए हमने सूर्य ,नक्षत्र,बृक्ष आदि की पूजा का विधान बनाया ।
प्रकृति के साथ उनका संबंध देखा जाए तो बिल्कुल ही सटीक होता है । सूरज की रोशनी में ही पौधे अपना भोजन बनाते हैं । पौधों के भोजन पर ही जीव धारियों का जीवन आश्रित होता है । पौधे नहीं रहें तो कोई जीवधारी नहीं रहेगा ,कोई जीव नहीं रहेंगे तो सृष्टि समाप्त हो जाएगी ।इसलिए सूरज सृष्टि के देवता माने जाते हैं ।
इसीलिए सूरज की आराधना में जो भी वस्तु्एँ लगती हैं ,वे सभी प्राकृतिक होती हैं ।बांस की बनी सूप,बांस की बनी दौरी, बांस की बनी बँहगी -सब के सब प्राकृतिक हैं ।उनके भोग में फल प्राकृतिक, मूली ,गाजर, नारियल ,सब प्राकृतिक । प्रसाद में पकवान प्राकृतिक ,गेहूं , चावल सब प्रकृति की उपज । इसलिए सूर्य प्रकृति के देवता माने जाते हैं और इन्हीं प्रकृति की वस्तुओं के साथ उष्मा प्रदान कर जगत की रक्षा करते हैं ।उनके प्रकाश से ही पृथ्वी प्रकाशित है ,सृष्टि प्रकाशित है ।
सूर्य की उपासना आदिकाल से होती आ रही है । जब किसी देवी-देवता की चर्चा नहीं थी , किसी देवी-देवता की मूर्ति नहीं थी ,उस समय सूर्य की पूजा सर्वोपरि थी । सभी लोग सूर्य की पूजा करते थे । इसीलिए प्रकृति के साथ इनका संबंध है ।
प्रायः पूजा दिनभर की ही होती है । कोई भी पूजा ,कोई भी अनुष्ठान सुबह से शाम का होता है , लेकिन इसमें इसके विपरीत अस्ताचलगामी सूर्य के अर्घ्य से लेकर उदित होते सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है और इसके साथ ही इस व्रत की पूर्ति होती है । इसके पीछे भी एक पौराणिक कथा है ।सूरज अपने ससुराल विश्वकर्मा के घर गए थे । विश्वकर्मा संज्ञा के पिता हैं , थे । सूर्य ने संज्ञा की बिदाई की बात की । अपनी बेटी की विदाई के लिए शाम में जामाता सूर्य की पूजा की गई जिसमें पकवान से लेकर उपलब्ध फल फूल की व्यवस्था की गई थी और उसके बाद रात भर विदाई की तैयारी होती रही । सुबह उनकी विदाई की गई । संज्ञा का घरेलु नाम वहां छठी माई रहा होगा । इसीलिए इसी को प्रतीक मानकर सायं कालीन अपने जामाता सूर्य के स्वागत के लिए और फिर अगले दिन प्रातः कालीन विदाई के लिए अर्घ्य देने का विधान है ।
इस सम्बन्ध में अनेक पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं ।
षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्ठी प्रकृतिता ।
वालकानामअधिष्ठातृ विष्णुमाया च वालदा ॥
श्रीमद् देवीभागवत् ॥
प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण इन्हें षष्ठी (छठी) देवी कहा गया ।
अस्ताचल गामी सूर्य को अर्घ्य देकर पृथ्वी को पवित्र किया जाता है,पुनः सुवह का अर्घ्य देकर निरोग रहने की कामना की जाती है ।
अस्योपासनमात्रेण सर्वरोगात् प्रमुच्यते ॥
पद्म पुराण,सृष्टि खण्ड 79/17
इस तरह शरीर धारी होने के कारण हम सूर्य ,सूर्योपासना तथा सूर्योपासकों को साष्टांग प्रणाम करते हैं ।
डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
जन -जन की आस्था का महापर्व
" यथा प्रकाशयत्येकः यही कृत्ष्ण्म लोकमिमम् रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्ष्णं प्रकाशयति भारत ॥
श्रीमद्भागवत गीता 13/33
अर्जुन को कर्म योग के उपदेश देते समय श्री कृष्ण ने कहा -" अर्जुन सूर्य की तरह कर्मयोग में निरत हो जाओ ।सूर्य देवता है और संपूर्ण जगत के परम आराध्य हैं
त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्ण तनय शाम्ब ने मगध में प्रथम सूर्योपासना की थी।यह कथा छठ ब्रत से जुड़ी है । शाम्ब को श्री कृष्ण ने गलित कुष्ठ का शाप दे दिया था । श्री कृष्ण द्वारा प्रदत कुष्ठ व्याधि के शाप के निवारणार्थ शाम्ब ने मगध के भू भाग पर यज्ञ किया था जो छः दिनों तक चला था । यज्ञ की पूर्ति तो रात में ही हो गई थी ,परन्तु सूर्य के दर्शन के बिना दिन की समाप्ति नहीं हो सकती , इसीलिए इस ब्रत की पुर्ति उगते सूर्य के अर्घ्य से
होती है ।
अग्नि पुराण के अनुसार विष्णु के नाभि -कमल से ब्रह्मा जी का जन्म हुआ । ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि ,मरिचि से महर्षि कश्यप का जन्म हुआ । महर्षि कश्यप से सूर्य की उत्पति हुई । हनुमान जी ने सूर्य के सानिध्य में रह कर शिक्षा प्राप्त की थी । इसके लिए हनुमान जी को पीछे कि गति से चलते रहना पड़ा था । कुंती के गर्भ से महावीर कर्ण कवच -कुंडल सहित जन्मे थे । वनवास काल में सूर्य की उपासना पाण्डवों ने भी की थी । हमारे ग्रंथ कहते हैं कि अत्रि मुनि की पत्नी ने भी सूर्योपासना की थी । राजा अश्वपति ने सूर्य की उपासना करके सावित्री देवी कन्या के रूप में पाया था जिसने यमलोक से अपने पति सत्यवान को वापस लाकर सतीत्व की मर्यादा स्थापित की थी ।भगवान कृष्ण भगवान सूर्य की उपासना करने के बाद सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था । बाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान राम ने भी आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ कर विजय प्राप्त की थी । पुराणों के अनुसार उनकी पत्नी संज्ञा से अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ जो देवताओं के वैद्य माने गए । अश्विनी कुमारों ने च्यवन ऋषि के वृद्ध शरीर को किशोर शरीर में परिणत कर सुंदरता का वरदान दिया ।
कर्म के वास्तविक अधिकारी सूर्य को जानकार भगवान ने उनको सर्वप्रथम कर्म का उपदेश दिया ।भगवान कृष्ण कहते हैं ,
" इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत ॥
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टःपरंतप ॥
श्री मद्भागवत गीता 4/1-3
" मैंने इस अविनाशी योग के बारे में विवस्वान सूर्य को बताया था । सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इच्छाकु से कहा ।"
हे अर्जुन ! इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इसे योगी एवं राजर्षियों ने जाना । किंतु उसके बाद यह योग पृथ्वीलोक से लुप्त प्राय हो गया । तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है । इसलिए यह पुरातन योग आज मैंने तुमको कहा है । भगवान के द्वारा दिए गए कर्म योग के उपदेश का सूर्य ने पालन किया । सूर्य का कर्मपथ ही संसार का जीवन पथ है । सुबह समय से उदित होने के साथ समय से अस्त होना इनका कर्म विधान है ।
जनक आदि राजाओं तथा संतो ,ऋषियों ने कर्मयोग का आचरण कर परम सिद्धि प्राप्त की थी । कालांतर में जब यह योग लुप्त प्राय हो गया ,तब भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया उत्तर वैदिक साहित्य तथा रामायण ,महाभारत में भी सूर्य की प्रार्थना मिलती है । गुप्त काल के पूर्व में ही सूर्योपासकों का एक संप्रदाय बन चुका था ,जो सौर नाम से प्रसिद्ध था और सौर संप्रदाय के उपासक अपने उपास्य देव सूर्य को आदिदेव के रूप में मानते थे । भौगोलिक दृष्टि से भारत में सूर्य उपासना व्यापक थी । मथुरा से मुल्तान तक ,कश्मीर से कोणार्क तक ,उज्जैनी आदि सूर्य उपासना के प्रधान केंद्र थे ।
वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति में सूरज की किरणों में विटामिन डी प्रचुर मात्रा में मिलता है । इसलिए सुबह की धूप सेवन का विधान है ।
विश्व के वैसे वैज्ञानिक जो कल तक हम पर हँसते थे ,वे आज भारतीय विज्ञान पर लट्टू हैं ।उर्जा का अक्षय स्रोत सूर्य ही हैं ,यह ज्ञान हमें सृष्टि के आरम्भ से ही प्राप्त है ।इसीलिए हमने सूर्य ,नक्षत्र,बृक्ष आदि की पूजा का विधान बनाया ।
प्रकृति के साथ उनका संबंध देखा जाए तो बिल्कुल ही सटीक होता है । सूरज की रोशनी में ही पौधे अपना भोजन बनाते हैं । पौधों के भोजन पर ही जीव धारियों का जीवन आश्रित होता है । पौधे नहीं रहें तो कोई जीवधारी नहीं रहेगा ,कोई जीव नहीं रहेंगे तो सृष्टि समाप्त हो जाएगी ।इसलिए सूरज सृष्टि के देवता माने जाते हैं ।
इसीलिए सूरज की आराधना में जो भी वस्तु्एँ लगती हैं ,वे सभी प्राकृतिक होती हैं ।बांस की बनी सूप,बांस की बनी दौरी, बांस की बनी बँहगी -सब के सब प्राकृतिक हैं ।उनके भोग में फल प्राकृतिक, मूली ,गाजर, नारियल ,सब प्राकृतिक । प्रसाद में पकवान प्राकृतिक ,गेहूं , चावल सब प्रकृति की उपज । इसलिए सूर्य प्रकृति के देवता माने जाते हैं और इन्हीं प्रकृति की वस्तुओं के साथ उष्मा प्रदान कर जगत की रक्षा करते हैं ।उनके प्रकाश से ही पृथ्वी प्रकाशित है ,सृष्टि प्रकाशित है ।
सूर्य की उपासना आदिकाल से होती आ रही है । जब किसी देवी-देवता की चर्चा नहीं थी , किसी देवी-देवता की मूर्ति नहीं थी ,उस समय सूर्य की पूजा सर्वोपरि थी । सभी लोग सूर्य की पूजा करते थे । इसीलिए प्रकृति के साथ इनका संबंध है ।
प्रायः पूजा दिनभर की ही होती है । कोई भी पूजा ,कोई भी अनुष्ठान सुबह से शाम का होता है , लेकिन इसमें इसके विपरीत अस्ताचलगामी सूर्य के अर्घ्य से लेकर उदित होते सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है और इसके साथ ही इस व्रत की पूर्ति होती है । इसके पीछे भी एक पौराणिक कथा है ।सूरज अपने ससुराल विश्वकर्मा के घर गए थे । विश्वकर्मा संज्ञा के पिता हैं , थे । सूर्य ने संज्ञा की बिदाई की बात की । अपनी बेटी की विदाई के लिए शाम में जामाता सूर्य की पूजा की गई जिसमें पकवान से लेकर उपलब्ध फल फूल की व्यवस्था की गई थी और उसके बाद रात भर विदाई की तैयारी होती रही । सुबह उनकी विदाई की गई । संज्ञा का घरेलु नाम वहां छठी माई रहा होगा । इसीलिए इसी को प्रतीक मानकर सायं कालीन अपने जामाता सूर्य के स्वागत के लिए और फिर अगले दिन प्रातः कालीन विदाई के लिए अर्घ्य देने का विधान है ।
इस सम्बन्ध में अनेक पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं ।
षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्ठी प्रकृतिता ।
वालकानामअधिष्ठातृ विष्णुमाया च वालदा ॥
श्रीमद् देवीभागवत् ॥
प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण इन्हें षष्ठी (छठी) देवी कहा गया ।
अस्ताचल गामी सूर्य को अर्घ्य देकर पृथ्वी को पवित्र किया जाता है,पुनः सुवह का अर्घ्य देकर निरोग रहने की कामना की जाती है ।
अस्योपासनमात्रेण सर्वरोगात् प्रमुच्यते ॥
पद्म पुराण,सृष्टि खण्ड 79/17
इस तरह शरीर धारी होने के कारण हम सूर्य ,सूर्योपासना तथा सूर्योपासकों को साष्टांग प्रणाम करते हैं । डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
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