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'दोहादशक'

दोहादशक

बेटा रहा दरिद्र का, राजकुॅंअर है नाम।
दर-दर भिक्षा मांग कर, चला रहा है काम।।
नाम नयनसुख है मगर, ना सकता कुछ देख।
बुद्धू लिखता नित्य है, सुन्दर सुन्दर लेख।।
लक्ष्मी घर-घर कर रही, दाई बनकर काम।
मालिक रहा करोड़ का, और भिखारी नाम।।
अक्षर पढ़ा न एक भी, विद्याधर कहलाय।
देखा मूर्खानंद को, वेद बांचते भाय।।
शोषण करे गरीब का, दीनबंधु है नाम।
दानवीर करता दिखा, कंजूसों सा काम।।
कोयल जैसा रूप है, चंदा कहते लोग।
अगद राय की देह में, दुनिया भर के रोग।।
गिरिधारी जी हैं मगर, उठे वजन ना पाव।
दंगलजीत न जानते, पहलवान सा दाव।।
दुख में जीवन बीतता, नाम रखा आनंद।
संयम लाला रह सके, नहीं कभी पाबंद।।
देख श्वान को केशरी, घर में गया लुकाय।
और उपद्रव राम जी, सबके बने सहाय।।
थुकनी को खैनी कहे, कहे खास को आम।
बढ़नी घटती नित्य है, मूल्यवान बेदाम।।
धनंजय जयपुरी
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