लोक आस्था का प्रतीक है "छठ पर्व"
सुरेन्द्र कुमार रंजन
भारत को पर्व-त्योहारों का देश कहा जाता है क्योंकि यहां पूरे वर्ष कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। पूरे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहां पूरे वर्ष पर्व-त्योहार मनाया जाता है। यहां हर धर्म के लोग रहते हैं और अपने-अपने पर्व-त्योहारों को बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। हिंदुओं के वैसे तो कई प्रमुख त्योहार हैं लेकिन सबसे पवित्र त्योहार छठ पूजा को माना जाता है क्योंकि थोड़ी-सी भूल होने पर दंड तुरंत मिल जाता है। इसलिए छठ पूजा करने वाले बड़ी सावधानी एवं पवित्रता के साथ पर्व को करते हैं।
छठ पर्व को वर्ष में दो बार मनाया जाता है- चैत्र मास के शुक्ल पक्ष षष्ठी को एवं कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष षष्ठी को। चैत्र मास में मनाये जाने वाले को चैती छठ और कार्तिक मास में मनाये जाने वाले को कार्तिकी छठ कहा जाता है। इस पूजा में छठि मइया (सूर्यदेव की बहन) की आराधना और सूर्यदेव को अर्ध्य देने का विशेष महत्व है। बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से मनाया जाने वाला पर्व आज देश के विभिन्न हिस्सों सहित नेपाल, मॉरिशस आदि दशों में भी मनाया जाता है।
छठ पूजा से जुड़ी कई कथाएं धार्मिक ग्रंथों एवं पुराणों में वर्णित है। इनमें से कुछ प्रचलित कथाओं की चर्चा यहां की जा रही है-
एक कथा के अनुसार देवासुर संग्राम के लिए शिव-पार्वती पुत्र कार्तिकेय को सेनापति बनाकर युद्धभूमि में भेजा गया था तब माता पार्वती ने पुत्र कार्तिकेय और देवसेना की मंगलकामना हेतु अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देकर पूजन किया और निर्जला व्रत रखा। उन्होंने सूर्यदेव के समक्ष प्रण किया कि यदि मेरा पुत्र कार्तिकेय विजयी होकर लौट आएगा तब मैं पुनः आपकी पूजा विधिवत् अर्घ्य देकर करूंगी, उसके बाद ही अपना निर्जला व्रत तोडूंगी। कार्तिकेय शीघ्र असुर संग्राम से विजयी होकर लौटे। अपने प्रण के अनुसार माता पार्वती ने पुनः निर्जला व्रत रखकर सूर्यदेव का पूजन किया और प्रात:काल जब पूरब दिशा में सूर्यदेव अवतरित हुए तब जल और दूध से अर्घ्य देकर अपना व्रत तोड़ा। ऐसा प्रतीत होता है कि माता पार्वती ने छठ व्रत की यह पूजा बिहार के ही किसी गंगा घाट पर की होगी तभी अन्य प्रदेशों की अपेक्षा इसका प्रसार बिहार में ज्यादा हुआ है। इसे लोकपर्व की भी संज्ञा दी गई है।
देवी भगवती पुराण की एक कथा के अनुसार राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी। तब महर्षि कश्यप ने राजा को पुत्र की प्राप्ति के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने की सलाह दी। ऋषि ने यज्ञ की आहुति के लिए बनायी गयी खीर राजा की पत्नी मालिनी को खाने के लिए दी। इससे उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई ,लेकिन वह पुत्र मरा हुआ उत्पन्न हुआ। मृत पुत्र को लेकर प्रियंवद श्मशान पहुंचे और पुत्र वियोग में अपना प्राण त्यागने लगे। उसी समय ब्रह्मा जी की मानस कन्या 'देवसेना' प्रकट हुई और बोली कि सृष्टि की मूल प्रकृति छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। हे! राजन आप मेरी पूजा करें तथा लोगों को भी पूजा के लिए प्रेरित करें। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया। देवी षष्ठी की असीम कृपा से कार्तिक शुक्ल षष्ठी को उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। तभी से छठ व्रत पुत्र एवं पति के दीर्घायु के लिए किया जाता है। लोक परंपरा के अनुसार सूर्यदेव और छठि मइया का संबंध भाई बहन का है। इसलिए छठ पूजा में सूर्यदेव के साथ-साथ छठि मइया की भी पूजा-अर्चना की जाती है।
एक अन्य कथा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के पुत्र राजा साम्ब को सौन्दर्य पर अभिमान था। सौंदर्य के अभिमान में चूर रहने के कारण एक बार ऋषि गंगाचार्य ने उन्हें श्राप दे दिया जिसकी वजह से वे कुष्ठ रोग से ग्रसित हो गए। कुष्ठ रोग से मुक्ति के लिए देवर्षि नारद ने राजा साम्ब को अलग-अलग स्थानों पर जाकर प्रतिमाह सूर्य की बारह राशियों की पूजा करने का सुझाव दिया था। नारद जी के परामर्श को मानकर उन्होंने अलग-अलग स्थानों पर सूर्य की बारह राशियों की पूजा की और कुष्ठ रोग से मुक्त हुए। सभी बारह स्थलों पर उन्होंने सूर्य मंदिर और सरोवरों का निर्माण कराया था। जिन बारह मंदिरों का उन्होंने निर्माण करवाया था उनमें से ग्यारह मंदिरों का पता तो हमारे पुरातत्ववेत्ताओं ने खोज निकाला पर एक का पता अभी तक नहीं लगा पाए हैं। ग्यारह सूर्य मंदिरों का विवरण इस प्रकार है 1)
- उलार्क-पटना जिला के दुल्हिन बाजार में।
- पुण्यार्क-पटना जिला के पण्डारक (बाढ़) में।
- अंगार्क-नालंदा जिला के औंगारी क्षेत्र में।
- बालार्क-नालंदा जिला के बड़गाँव क्षेत्र में।
- देवार्क-औरंगाबाद जिला के देव क्षेत्र में। ऐसी मान्यता है कि यहाँ के सरोवर में स्नान करने से चर्मरोग और कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल जाती है।
- लोलार्क-बनारस में।
- कोणार्क-उड़ीसा में।
- वर्णार्क -चन्द्रभागा नदी (महाराष्ट्र) के किनारे।
- दर्शनार्क-अयोध्या में।
- मार्कण्डेयार्क
- वेदार्क
- अज्ञा
दूसरे दिन अर्थात् चैत्र अथवा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष पंचमी को "खरना या लोहंडा"के नाम से जाना जाना है। इस दिन व्रती निर्जला उपवास रखती है। शाम को स्नान करके अरवा चावल, गाय के दूध और गुड़ अथवा गन्ने के रस से प्रसाद बनाते हैं। रोटी और चावल के आटे का लड्डू भी बनाया जाता है है। कहीं-कहीं सेंधा नमक डालकर चने की दाल और अरवा चावल का भात भी बनाया जाता है।शाम को व्रती बनाये गये प्रसाद एवं फल का भोग लगाकर सूर्यदेव की पूजा अर्चना करते हैं। इसके व्रती प्रसाद ग्रहण करते हैं। फिर घर के सदस्यों और आगंतुकों को प्रसाद खिलाया जाता है। इसके बाद अगले 36 घंटे तक व्रती निर्जला उपवास रखते हैं।
तीसरे दिन अर्थात् चैत्र या कार्तिक मास के शुक्ल षष्ठी को संध्या अर्घ्य के नाम से जाना जाता है। इस दिन व्रती एवं उनके सहयोगी मिलकर सूर्यदेव को अर्पित करने के लिए ठेकुआ और चावल आटे का लड्डू शुद्ध घी में बनाते हैं। फिर बांस की टोकरी (दउरा) में प्रसाद एवं फल को सजाकर रखते हैं। शाम को एक सूप में नारियल, पांच प्रकार के फल और पूजा की अन्य सामग्री रखते हैं। इसे उसी दउरा में रखकर साफ कपड़े में बांध देते हैं। सूर्यास्त से पहले घर के पुरुष सिर पर दउरा रखकर किसी नदी या तालाब के किनारे जाते हैं। वहां साफ-सुथरे स्थान पर दउरा को रखकर घी का दीपक जलाया जाता है। व्रती स्नान करके हाथ जोड़कर डूबते हुए सूर्य को नमन करते हैं। फिर हाथ में नारियल और फल से भरे सूप को हथेली पर रखकर परिक्रमा करते हुए सूर्य को अर्ध्य देते हैं। परिक्रमा करते समय घर के छोटे बड़े सभी दूध एवं जल ढारते (गिराते) हैं। इसके बाद व्रती धूप-दीप जलाकर पूजा करते हैं। पूजोपर्यंत वस्त्र बदलकर वापस घर लौट जाते हैं।
चौथे दिन अर्थात् चैत्र या कार्तिक मास के शुक्ल सप्तमी को प्रातः अर्घ्य के नाम से जाना जाता है। सूर्योदय से पहले व्रती घाट पर पहुंचते हैं। संध्या में अर्पित प्रसाद को बदलकर उसमें नया प्रसाद रखा जाता है किन्तु कन्द-मूल, फलादि वही रहते हैं। संध्या काल की तरह ही सुबह में भी पूजा की जाती है। फर्क सिर्फ इतना होता है कि शाम में पश्चिम की ओर मुंह करके डूबते सूर्य की उपासना करते हैं और सुबह में पूरब की ओर मुंह करके उगते हुए सूर्य की उपासना करते हैं। शेष विधि शाम की पूजा की तरह ही होता है। अंत में व्रती पूजा समाप्त कर नीबू शर्बत पीकर निर्जला उपवास को तोड़ते हैं। इसके बाद सभी को आशीर्वाद देकर प्रसाद देते हैं। घर आकर नमकयुक्त भोजन ग्रहण करके इस पर्व का समापन करते हैं।
छठ का व्रत किसी कठोर तपस्या से कम नहीं है। यह पर्व पति और संतान की दीर्घायु के लिए किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि सच्चे मन से छठ व्रत करने पर सारी मनोकामनाएं पूरी होती है। मान्यता यह भी है कि छठ व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र की प्राप्ति होती है। महिलाओं के साथ पुरुष भी अपने कार्य की सफलता और मनचाहे फल की प्राप्ति के लिए इस व्रत को पूरी निष्ठा और श्रद्धा से करते हैं।छठ पूजा मंत्रों की पूजा नहीं है बल्कि भारतीय संस्कृति की पूजा है। यह सामाजिक एकात्मकता की पूजा है। आपसी भाईचारे और बंधुत्व की पूजा है।
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