अभागी श्यामा
डॉ रामकृष्ण मिश्रइक निदाघी प्रखरता की धूप सी लगती।
वह व्यथा की कहानी में मढ़ी सी लगती।।
बड़े माँगे में उठाती बीन कर बोतल।
सभी मौसम की अँधेरी रात सी लगती। ।
न जाने किस झोपड़ी की अभागी श्यामा
रोज अपने भाग्य से लड़ती हुई लगती।।
देह-- दर्शी दुष्ट आँखों को दिखा ठेगा।
कुक्कुरों के स्वार्थ को ठगती हुई लगती।।
सुबह की नरमी पहन फिर घाम से लथपथ।
कबाड़ी तक बोझ ले टगती हुई लगती।।
ढोल पीटे गये थे बदलाव के लेकिन।
धधकती सीआँच में जलती हुई लगती।।
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