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वह भी क्या कॉलेज के दिन थे

वह भी क्या कॉलेज के दिन थे

ऋषि रंजन पाठक
वह भी क्या कॉलेज के दिन थे,
जब हम सपनों में खोया करते थे,
राघवेंद्र सर की क्लास में,
शब्दों के जादू बिखरा करते थे।
सुनीता मैडम की मुस्कान में,
ज्ञान की किरणें चमकती थीं,
हर पाठ, हर किस्सा उनका,
जीवन का नया रंग दिखाती थीं।
विमल सर की शांति में,
गूढ़ रहस्यों का सागर था,
उनकी बातें जैसे चुपचाप,
मन के भीतर उतर जाती थीं।
अंग्रेज़ी ऑनर्स के वह दिन थे,
जब ख्वाबों की किताबें खुली थीं,
शेक्सपियर से लेकर मिल्टन तक,
हर शब्द में नई कहानी बसी थी।
राघवेंद्र सर की गूढ़ बातों में,
कविताओं का जादू बिखरता था,
सुनीता मैडम के व्याख्यान में,
जीवन का हर रंग निखरता था।
विमल सर की शांत आवाज़,
जैसे हर सवाल का जवाब थी,
उनके शब्दों में वह गहराई,
जो दिल के अंदर उतरती थी।
क्लास के बाद वह चाय का दौर,
दोस्तों के संग हंसी की बौछार,
पन्नों में खोए थे हम सब,
और दिल में था उजाला अपार।
याद है वह हर गलियारा,
जहां हमने सपने सजाए थे,
दोस्तों के साथ हंसी-मजाक,
और जज्बातों में डूबे दिन बिताए थे।
वह भी क्या दिन थे अंग्रेज़ी ऑनर्स के,
जहां भाषा से प्रेम जागा था,
आज भी मन में वह पल बसते हैं,
जब साहित्य ने हमें संवारा था।
वह भी क्या कॉलेज के दिन थे,
जहां हम खुद को पाया करते थे,
अब भी दिल में वही एहसास है,कि हम कभी वहां जिया करते थे।
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