शब्दों के मोती न झरते हैं
भावों से न अनबन कोई,शब्द जाने क्यों रूठ गये?
कहाँ गये वे करुण काव्य?
अंतः कोलाहल से टूट गये।
नीरवता का पसरा साया,
सन्नाटे के झंझावात में,
बिलखता विरही मन मेरा,
स्याह तिमिरमय रात में।
ढूंढ रही स्थान उस हृदय में,
जहाँ न मेरा कोई ठिकाना है,
है यह मेरी दुर्धर्ष कामना,
प्रीत कब जग ने पहचाना है?
शिथिल पड़ी मधुप्रात की बेला,
चरण शिथिल,पग न बढ़ते हैं।
गुंजित होते मन मस्तिष्क पर,
शब्दों के मोती अब न झरते हैं।
डॉ. रीमा सिन्हा
लखनऊ
स्वरचित
रीमा सिन्हा 'संवेदना'
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