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जिनिगी के गाड़ी लुढ़कत लुढ़कत कहाँ से कहाँ आ ग‌इल बाटे।

जिनिगी के गाड़ी लुढ़कत लुढ़कत कहाँ से कहाँ आ ग‌इल बाटे।

इ बात तब ज्यादे बुझाता जब कवनो परब त्योहार आवता।हमनीं का गाँव में भी काल्ह दिअरी ( दिवाली ) हो ग‌इल। आज दिअरी के भोर में जब नींद खुलल ह, त देखतबानी जे रात के जरावल दिया दिअरी सब ओइसहीं अपना जगह पर पड़ल बाटे। अब जरल दिया बटोरे वाला केहू ल‌इका नइखे गाँव में। इ देख के हमारा मन में कुछ अफसोस भ‌इल ह आउर मन अपना बचपन में चल ग‌इल ह। हमनीं का बचपन में सतर साल पहिले एगो उ दिन रहे जब दिअरी का सुबह भिनसार से ही हम सब लइका लोग जाग के जरल दिया दिअरी बिटोरे के फेर में लग जात रहनीं सन। हारा बाजी ल‌इकन में लागत रहे जे के कतना दिया दिअरी बिटोरे सकत बा। दिआ बटोरला का बाद हमनीं के दिन छठ पूजा तक खुब व्यस्त काम वाला रहत रहे। कौनों ल‌इकन के खाए पीए आउर स्कूल के कवनों चिंता ना रहत रहे। दूगो बड़का दिया में उपर किनारे चार चार गो सुआ से छेद करके रसरी बांध के तरजुइ बनावल जात रहे। कांडा के लकड़ी खोज के तरजुइ के डंडी बनावल जात रहे। कहीं से सुतरी ना मिलत रहे त हमनीं अपना माई के सिअनी में से डोरा चुरावत रहनीं सन। डोरा भी ना मिलल त अंतिम उपाय रहे, माई के पुरनका लुगा साड़ी के कोर ( किनारा ) फाड़ के ओकर रसरी बना के तरजुइ बनावल।छोटका दिया दिअरी सब खरीद बिक्री के सामान रखे खातिर बरतन का रूप में काम में लगावल जात रहे। खरीद बिक्री के सामान रहे मांटी धुरा। सब ल‌इकन में केहू साहूकार बनिया बन जात रहे, त केहू खरीददार बन जात रहे। प‌इसा रूपया रहे गाछ के सुखल पत‌ई आउर सिकटा, खापड़ा। खुब खरीद बिक्री चार दिन छठ पूजा तक चलत रहे। दिअरी का पहिले कोह‌इन दिया दिअरी के साथ माटी के जांत, ओखर, मुसर, खिलौना भी दे जात रहे लोग। एह सब सामान के काम अब दिअरी का बाद में लागत रहे। साहूकार बनिया से खरीद के ले आइल अनाज ( माटी, धुरा ) ओखर में कुटात रहे आउर जांत में पिसात रहे। एह खेल में छठ पूजा का पहिले के चार पांच दिन क‌इसे आनंद से बीत जात रहे ओकरा के लिख के ना बतावल जा सकता। फिर हम सब ल‌इकन लोग अपना भाई बहिन आउर माई दादी के साथ मिलकर गोधन पूजा आउर छठ पूजा में माई दादी के साथ लाग जात रहनी सन।
अब आज जब हम दिअरी का बाद दिआ दिअरी ओइसहीं पड़ल देखनी ह त बड़ा ही अजीब लगल ह। एक ही बात समझ में आइल ह की तब आउर अब में केतना फरक पड़ ग‌इल बा। गाँव के लोग अपना छोट छोट ल‌इकन के लेके शहर में निकल ग‌इल। इ ल‌इका सब गाँव का वातावरण से अलग थलग पड़ ग‌इले सब। गाँव में इक्का दुक्का ल‌इका रह भी ग‌इल बाड़े उ सब भी माउटेन्सरी स्कूल में पढ़ने जात बाड़े। उ सब भी गाँव गंव‌ई का विनोद आउर रीति रिवाज से अलग थलग पड़ ग‌इल बाड़े। अभिभावक लोग भी अपना बच्चे लोग के गाँव के रीति रिवाज से अलग थलग रखे के चाहत बा। एह में लोग आपन तवहीनी समझत बाटे।
हमनीं हिन्दू लोग के दिअरी , छठ, दूर्गा पूजा ज‌इसन अनेकों परब त्योहार हर साल आवता, जाता। गाँव आउर शहर में लोग अपना अपना तरह से परब त्योहार मनावत भी बा। लेकिन एगो बात इहे समझ में आवता की शहरीकरण का चक्कर में गाँव आउर गाँव के संस्कृति आस्ते आस्ते मरल जा रहल बा। जय प्रकाश कुवंर
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