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कर न सका हित किसी का ,

कर न सका हित किसी का ,

अपनी ही ये टीस समझकर ।
पी न सका मैं अमृत भी यह ,
जहरीला सा विष समझकर ।।
उसका टीस ही था मेरा हर्ष ,
तब निकलता सज धजकर ।
पहुॅंचता था मैं हालचाल लेने ,
जब चेहरे पर बारह बजकर ।।
उसका सुख मेरे मन का टीस ,
आग लगाता काम तजकर ।
मुॅंह में राम बगल लेकर छुरी ,
रास्ते में ही श्रीराम भजकर ।।
था तो भोला भाला ये इंसान ,
मैं नीति में निकला मजकर ।
बहाना बना शीघ्र निकलता ,
सोची हुई ये नीति कजकर ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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