किरदार रंगमंच पर, निभा रहे हैं लोग,
अलग अलग रंग में, आ जा रहे हैं लोग।बचपन जवानी बुढ़ापा, एक ही शख्स है,
फिर भी अलग क्यों, नजर आ रहे हैं लोग।
शख्स था अकेला, मुखौटा जुदा जुदा,
भाई- पति- बेटा, किरदार जुदा जुदा।
बनता कहीं गुरू, कहीं शिष्य भी वही,
पिता और पति का, व्यवहार जुदा जुदा।
कठपुतली तो बेजान, उँगलियों से नाचती,
अपने हुनर की पहचान, कुछ भी न जानती।
इन्सान मात दे रहा, गिरगिट को रंग बदल,
नफरत- प्यार संग संग, गिरगिट न ठानती।
अ कीर्ति वर्द्धन
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