दिन को काले अंचल से ढँक
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•(पूर्व यू.प्रोफेसर)
दिन को काले अंचल से ढँक
परिष्वक्त हो रात सो गई ।
गहन मौन छा गया चतुर्दिक्,
दिल में दिल की बात खो गई।
निठुर नियति के कर्कश कर में,
निर्वश जीवन-डोर पड़ी है ।
पोंछ रहा दिन अश्रु रात के ,
दरवाजे पर सुबह खड़ी है।
क्रौंची का चीत्कार करुण ही,
रामायण की कथा बन गया।
तेरा हाथ छुड़ा कर जाना ,
जीवन की चिर व्यथा बन गया।
पीर निबिड़ गिरि के अंतर की,
संतत निर्झरिणी हो झरती।
करुणा-कलित सरित् निशिवासर,
परिष्वक्त हो रात सो गई ।
गहन मौन छा गया चतुर्दिक्,
दिल में दिल की बात खो गई।
निठुर नियति के कर्कश कर में,
निर्वश जीवन-डोर पड़ी है ।
पोंछ रहा दिन अश्रु रात के ,
दरवाजे पर सुबह खड़ी है।
क्रौंची का चीत्कार करुण ही,
रामायण की कथा बन गया।
तेरा हाथ छुड़ा कर जाना ,
जीवन की चिर व्यथा बन गया।
पीर निबिड़ गिरि के अंतर की,
संतत निर्झरिणी हो झरती।
करुणा-कलित सरित् निशिवासर,
अमृत-दान जग को है करती।
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