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शिवाजी द्वितीय और महारानी ताराबाई

शिवाजी द्वितीय और महारानी ताराबाई

डॉ राकेश कुमार आर्य
इससे पहले कि हम इस अध्याय के बारे में कुछ लिखें मैथिली शरण गुप्त की इन पंक्तियों रसास्वादन लेना उचित होगा-


‘हाँ! वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है।
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?
भगवान की भवभूतियों का यह प्रथम भंडार है।
विधि ने किया नर सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है।।


राजनीति को केवल सत्ता संघर्ष तक सीमित करके देखना स्वयं राजनीति के और इतिहास के साथ अन्याय करना है। परंतु राजनीति सदा ही सत्ता संघर्ष के लिए नहीं होती है। इतिहास के अनेकों अवसर ऐसे आये हैं जब राजनीति किसी क्रूर तानाशाह, अत्याचारी व निर्दयी शासक को हटाने के लिए भी की जाती है और जब यह ऐसे शासक के विरुद्ध की जाती है तो उस समय यह राजनीति न होकर राष्ट्रनीति होती है, क्योंकि राष्ट्रनीति के अंतर्गत ऐसे दुष्टाचारी और पापाचारी शासक को हटाना प्रत्येक राष्ट्रभक्त का कार्य होता है। राजनीति सत्ता संघर्ष के लिए तब मानी जाती है, जब वह किसी न्यायपूर्ण शासक को हटाकर सत्ता पर अपना नियंत्रण स्थापित कर दुष्ट लोगों के द्वारा की जाती है। अन्यायी शासक को सत्ता से हटाना राष्ट्रनीति का प्रमुख कार्य है। जो लोग जिस काल में भी इस पवित्र कार्य में लगे रहे हैं, उन्हें राष्ट्रनीति के पवित्र राष्ट्रधर्म को अपनाने वाला महानायक घोषित किया जाना इतिहास का प्रथम कर्तव्य है।


भारतीय इतिहास के संदर्भ में यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि हमारे देश के हिंदू शासकों ने यद्यपि स्वदेश की स्वतंत्रता के लिए दुष्ट, अत्याचारी, क्रूर विदेशी सत्ताधीशों से संघर्ष किया और जब लड़ते-लड़ते या तो प्रमुख राजा मर गया या उसके परिवार में कोई योग्य उत्तराधिकारी न रहा तो उस समय किसी रानी ने या किसी अन्य प्रमुख व्यक्ति ने सामने आकर जब शासन करना आरंभ किया या उस शासन पर एकाधिकार कर स्वतंत्रता के संघर्ष को आगे बढ़ाने का सराहनीय कार्य किया तो उसे भी स्वार्थपूर्ण सत्ता संघर्ष कहकर अपमानित करने का प्रयास किया गया। उदाहरण के रूप में हम रानी लक्ष्मीबाई को ले सकते हैं। जिनके राज्य को अंग्रेज अपने राज्य में मिलाने के लिए बहाना खोज रहे थे, परंतु रानी ने अपने गोद लिए पुत्र को राजा बनाने और देश के स्वाधीनता संघर्ष को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। ऐसे में रानी का यह साहसिक निर्णय स्वार्थपूर्ण सत्ता संघर्ष न होकर देश की मान्य परंपरा अर्थात दत्तक पुत्र भी राज्य का अधिकारी हो सकता है-की स्थापना करने के लिए न्यायपूर्ण संघर्ष था। जिसका उन्हें अधिकार था। इसके उपरांत भी रानी के इस संघर्ष को स्वार्थपूर्ण संघर्ष कहकर इतिहास में अपमानित किया गया है, जो कि सर्वथा दोषपूर्ण है।
छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य में भी ऐसे कई अवसर आए जब न्यायपूर्ण शासन की स्थापना के लिए किसी रानी को या राज्य परिवार के किसी अन्य व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ा। उन्हीं में से एक महारानी ताराबाई का नाम है। जिन्हें मुगलों के विरुद्ध अपने न्यायिक अधिकारों के लिए और हिंदवी स्वराज्य की सुरक्षा के लिए युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा।


महारानी ताराबाई (1675-1761 ई.)*


नारी भी उनकी होती अरि जो देश को हैं नोंचते।
रणचंडी बन उन पर टूटती जो देश को हैं कौंधते ।।
इतिहास हमारा दे रहा प्रमाण पग-पग पर यही।
संस्कृति की रक्षार्थ नारी ने भी लड़ाइयाँ हैं लड़ीं ।।


महारानी ताराबाई का मराठा इतिहास में विशेष सम्मानपूर्ण स्थान है। महारानी छत्रपति राजाराम महाराज की दूसरी पत्नी तथा छत्रपति शिवाजी महाराज के सरसेनापति हंबीरराव मोहिते की सुपुत्री थीं। जिन्होंने अपनी वीरता, शौर्य और देशभक्ति पूर्ण कार्यों से इतिहास में अपनी विशेष और अमिट पहचान छोड़ी। राजाराम महाराज के जीवन काल में ही इन्होंने मराठा राजवंश में अपना सम्मानपूर्ण स्थान बना लिया था।


यह बात पूर्णतः सत्य है कि शिवाजी की मृत्यु के उपरांत मराठा शक्ति का पतन होने लगा था। यद्यपि उनके पश्चात मराठा शक्ति को बनाए रखने के लिए प्रत्येक शासक भरसक प्रयास कर रहा था। मुगलों के आक्रमण के कारण राजाराम को 1689 में जिंजी किले में शरण लेनी पड़ी थी। उस समय ताराबाई भी जिंजी पहुंची थीं। यहाँ भी मुगलों और मराठों में लगभग 8 वर्षों तक निरंतर युद्ध चलता रहा था। इसी मध्य ताराबाई ने अपने पुत्र शिवाजी को 1696 में जन्म दिया। जिंजी का किला 1697-98 में मुगलों के हाथ लगा। इस प्रकार मराठा शक्ति को अपने शानदार राजनय से प्रभावित करने वाली इस महारानी ताराबाई का जन्म 1675 में हुआ था। ताराबाई का पूरा नाम ताराबाई भोंसले था।


जिस समय राजाराम महाराज की मृत्यु हुई थी, उस समय मराठा साम्राज्य पर संकट के बादल छाए हुए थे। मुगल बादशाह औरंगजेब की भृकुटि इस राज्यवंश पर तनी हुई थी और वह इसे निगल जाना चाहता था। ऐसे में साम्राज्य के संरक्षण के लिए और हिंदवी स्वराज्य की उन्नति और विस्तार के लिए किसी महारानी ताराबाई की ही आवश्यकता थी।


क्रमशः



(लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है )
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