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समझदार लोगों के दोस्त कम क्यों होते हैं

समझदार लोगों के दोस्त कम क्यों होते हैं

ऋषि रंजन पाठक
जैसे-जैसे उम्र की सीढ़ियां चढ़ती जाती हैं,
जीवन की सच्चाइयां और गहरी होती जाती हैं।
जहां बचपन की मस्ती में सब साथी होते थे,
अब समझदारी में रिश्ते छटते जाते हैं।


समझदार दिल सवालों में उलझा रहता है,
हर चेहरे के पीछे का सच पढ़ता है।
मोह नहीं करता वह झूठी हंसी से,
गहराई में डूबा हर रिश्ता परखता है।


समझदारी के साथ अकेलापन क्यों आता है,
हर रिश्ता क्यों धागों-सा टूट जाता है?
क्या सच्चाई इतनी भारी होती है,
कि दोस्ती की जमीन ही खिसक जाती है?


जहां शब्द हल्के हों, वहां भीड़ जुटती है,
पर गहरी बातें तो बस सन्नाटा रचती है।
सवाल जो खड़े हों हर मुस्कान के पीछे,
वो चेहरे जल्दी ही छुपने लगते हैं।


समझदार दिल को झूठ बरदाश्त नहीं होता,
जहां दिल मिलावट करे, वहां वास नहीं होता।
रिश्तों का बोझ वो संभाल नहीं पाते,
जो सच्चे न हों, उन्हें अपने पास नहीं लाते।


पर यह अकेलापन भी कमाल का होता है,
खुद से मिलने का एक अवसर होता है।
जहां शब्द नहीं, बस खामोशी बोलती है,
और आत्मा की गहराई खुद को खोलती है।


कम दोस्त सही, पर दिल के करीब होते हैं,
वो जो हर सुख-दुख में शरीक होते हैं।
समझदारों का जीवन शायद यूं ही चलता है,
अकेलेपन में भी, एक जहां बसता है।


सच की बात, सुनने में कठिन होती है,
और दिखावा तो हर किसी को प्रिय होती है।
समझदार जब सच का आईना दिखाते हैं,
तो दोस्ती के धागे अक्सर टूट जाते हैं।


वो न बर्दाश्त करते हैं दिखावटी मेल-जोल,
न झुकते हैं झूठे संबंधों के बोल।
अकेलेपन से ज्यादा सुकून पाते हैं,
अपनी गहराई में खुद को समझते हैं।


दोस्त कम हैं, मगर जो हैं, वो खास हैं,
सच्चे दिलों के चिराग, उजालों के पास हैं।
उम्र के साथ ये समझ आता है,कि दोस्ती नहीं, 
उसका सार मायने रखता है।
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