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मैं, मैं नहीं

मैं, मैं नहीं

(डॉ. मुकेश असीमित)
मैं, मैं नहीं,
मैं मेरा अहम्,
क्या यह शरीर हूँ मैं ?
कदापि नहीं—
एक ओढा हुआ वहम शायद ।
यह काया,
मांसपेशियों का जाल,
ना मेरा आधार,
ना मेरी पहचान का उपहार।
बस कंचन सा छलावा,
जिसमें आत्मा—
बांसुरी की तान सा बजता कोई स्वर।
रिश्तों की गहराई में,
क्या कभी मिला कोई ठहराव?
हर धड़कन में,
कहीं धुंध सी गलफहमी जलाए बैठी आव ।
हाथ पकड़ते ही छूट जाती है जैसे ,
हर स्पर्श के भीतर,
शून्य से कोई ध्वनि टकराती जैसे ।
मैं बहता हूँ,
जैसे नदी अपनी लय में,
रास्ते और मंजिल के द्वय में ।
किन्तु हर मोड़ पर,
सागर का आवाहन सुनता ह्रदय में ।
इस अनवरत यात्रा में,
कशमकश का संवाद,
शरीर—एक तात्कालिक ठहराव,
आत्मा—एक नक्षत्र सा अनंत,
अनथक खोजता सत्य का बहाव ।
बारिश की पहली बूंद,
पत्तों पर ठहरती है क्षण भर,
फिर बह जाती है—
जैसे अस्तित्व का सत्य,
खड़ा हो तन कर ।
मैं भी बहने देता हूँ,
रिश्तों की स्मृतियां,
स्वप्नों की परछाईयां।
शरीर, तुम शरीर हो—
बस माध्यम,
ना मैं तुम्हारा,
ना तुम मेरे सम ।
हमारी यात्रा अलग-अलग,
लेकिन संगम की चाह,
जैसे नदी नहीं होती सागर से विलग ।
तो बहने दो—
हर भ्रम, हर वहम,
हर आसक्ति,
हर धुंध का झूठा भ्रम ।
क्योंकि सत्य—
नदी की धार में नहीं,
नाव की पतवार में नहीं ,
मैं के सार में नहीं ।
ये तो है बस --
सागर के आलिंगन में ,
अनुभूति के आंगन में ।रचनाकार –डॉ मुकेश असीमित
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