प्रकृति से प्यार है
ऊँचे ऊँचे पर्वत देखोनीचे बहती नदियाँ जो।
देख दृश्य ये प्रकृति का
बहुत सुहाना लगा है जो।
राग आलाप रही नदियाँ
डोल पिट रहे पर्वत जो।
मन मन्दिर में आने विराजे
राधा कृष्ण की जोड़ी जो।।
सेर-सपाट करत करत देखो
कहाँ पहुँच गये हम जो।
कल-कल छल-छल करती देखो
दौड़ लगा रही नदियाँ जो।
कही हरियाली कही खुशाली
देख हमें बहुत ही भाते जो।
मनखो और दिलखो भी हमरे
ये सब बहुत ही भात जो।।
प्रेम उड़ पढ़त हमरो देखो
निकलत नदी किनारे से जो।
बंधन संबंध याद कारात
नदी पर्वत अपने जैसे जो।
कितनी खुशियाँ देते दोनों
देख देख खुश हो जात हम।
मनमें भाव उछल कूंद करत
जब पर्वत से गिरत पानी जो।।
कितनी सुंदर है जा प्रकृति
देख देख मन भरत नही।
व्याकुलता बढ़ती रहती है
देख देख इसखो जिऔ जो।
गिरत पानी पर्वत से जब भी
और तन पर पढ़त बूंदने जो।
खिल उठत एक दम से तन
और लिपट जात मेहबूब से जो।।
प्यार मोहब्बत तुम भी करो
पर्वत और पानी जैसो।
जीवन अपनो बनो रहेगो
एक दम हरियाली जैसो।
झूम उठेगो दिल भी अपनो
फूल पत्तियों और डालियों जैसो।
पर्वत जैसे ऊँचे बनो तुम
और पानी जैसे बनो शीतल।।
जीवन पर ये अद्भूत रचना
संजय ने लिखी है आज।।
जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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