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न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव की नोटिस

न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव की नोटिस

दिव्य रश्मि संवाददाता जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |
कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, राजद, सपा, सीपीआइ (एम) और सीपीआइ ने एक साथ मिलकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध राज्य सभा में महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस देने की तैयारी में लगे हुए हैं।


महाभियोग लगाने के लिए किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत लोकसभा में पेश की जाती है, सूत्रों की माने तो महाभियोग लगाने के लिए कम से कम 100 सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ प्रस्ताव पेश करना होता है। उसी प्रकार राज्य सभा में पेश करने के लिए भी 50 सांसदों के हस्ताक्षर जरूरी होता है। महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने के लिए न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 के तहत संविधान के अनुच्छेद 124 (4) और 124 (5) के साथ न्यायाधीश (जांच) अधिनियम की धारा 3(1) (बी) के तहत किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ मांग की जाती है।


सदन का पीठासीन अधिकारी पेश किए गए नोटिस को मंजूर या नामंजूर कर सकता है। नोटिस मंजूर होने पर क्या यह मामला महाभियोग के लिए उपयुक्त है या नहीं, इसकी जांच, तीन सदस्यीय न्यायिक कमिटी करती है । न्यायिक कमिटी में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के एक-एक न्यायाधीश शामिल होते हैं।


सूत्रों की माने तो विश्व हिन्दू परिषद के कार्यक्रम में दिए गए बयान कहते हुए न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग लगाने के लिए देश के विपक्ष तैयारी कर रही है। जबकि इस संबंध में वीडियो वायरल होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 10 दिसंबर को ही बयानों पर आधारित खबरों पर संज्ञान ले चुका है और इस मुद्दे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय से रिपोर्ट भी मांगी है। फिर भी, विपक्ष महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस देने की तैयारी कर रहा है। जबकि मंगलवार को सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम के समक्ष न्यायाधीश पेश भी हो चुके है।


निर्धारित मानदंडों के अनुसार, किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ किसी विवादास्पद मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा संबंधित उच्च न्यायालय से रिपोर्ट मांगी जाती है और भारत के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम के समक्ष उन्हें अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाता है।


विपक्षी नेताओं ने न्यायाधीश के बयानों पर प्रश्न उठाते हुए "घृणास्पद भाषण" करार दिया है और गैर-सरकारी संगठन 'कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स के संयोजक अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के आचरण की "आंतरिक जांच" कराने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि न्यायाधीश ने न्यायिक नैतिकता और निष्पक्षता एवं धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन किया। वहीं सी पी आई (एम) की नेता वृंदा करात ने इसे उनकी शपथ का उल्लंघन बताया है और कहा कि न्यायालय में ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इसी तरह, 'बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया' ने भी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के बयान की निंदा की है।


यदि सदन में महाभियोग के प्रस्ताव पेश होता है तो ऐसी स्थिति में सदन की कुल सदस्यता के बहुमत के अतिरिक्त, उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो- तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित होना चाहिए।
किसी भी न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव पास होने के बाद राष्ट्रपति की ओर से उसे पद से हटाने की प्रक्रिया शुरू की जाती है। क्योंकि इस तरह के संवैधानिक कार्रवाई के बाद कोई न्यायाधीश सरकारी सेवा में बने रहने का अधिकार खो देता है। जबकि इस प्रक्रिया के बाद आपराधिक मामले की जांच सामान्य रूप से जारी रखा जाता है।


देश में सबसे पहले न्यायाधीश वी. रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव 1993 में लोकसभा में लाया गया था। लेकिन दो- तिहाई बहुमत के अभाव में प्रस्ताव गिर गया था। वहीं 2011 में कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव आया था तो उन्होंने इससे पहले ही इस्तीफा दे दिया था।

सूत्रों के अनुसार, महाभियोग के प्रस्ताव पर 36 सांसदों ने हस्ताक्षर कर दिया है, जिसमें कांग्रेस के दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश, विवेक तन्खा, आम आदमी पार्टी के संजय सिंह, तृणमूल कांग्रेस के साकेत गोखले, सागरिका घोष, राजद के मनोज कुमार झा, सपा के जावेद अली खान, सीपीआइ (एम) के जॉन ब्रिटास और सीपीआइ के संदोष कुमार शामिल है।
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