पत्थरों के पास जाना चाहता हूँ अब नहीं।
डॉ रामकृष्ण मिश्र
पत्थरों के पास जाना चाहता हूँ अब नहीं। नये सपनों का बहाना चाहता हूँ अब नहीं ं।।
बहुत मुश्किल से मिला है एक सोता नीर का।
लोभ की खातिर गवाँना चाहता हूँ अब नहीं।।
एक कुनवे में सिमट कर धनद सारे रह गये।
कोठियाँ अपनी बनाना चाहता हेूँ अब नहीं।।
पागलों के शोर योंं सोने नहींं देते मगर।
सुप्त को थोडा़ जगाना चाहता हूँ अब नहीं।।
पाँव अपने- स्वयं सीधे कर लिए, है दौड़ना।,
स्वाभिमानी जिद हटाना चाहता हूँ अब नहीं। ।
क्रंदनों के बीच धीमी सुलगती सी आग भर।
स्नेह वश सच -मुच बुझाना चाहता हूँ अब नहीं।।
रामकृष्ण
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