ॐ मणिपद्मे हुँ।
अरुण कुमार उपाध्याय
१. बौद्ध तन्त्र-यह बौद्ध धर्म का साधना मन्त्र है जो विशेषकर हिमालय क्षेत्रों में प्रचलित है।
मनुष्य शरीर की क्रिया या विश्व स्वरूप एक ही है। अतः बौद्ध दर्शन भी इन तत्त्वों का प्रायः वही वर्णन करता है जो सनातन धर्म में है। कुछ भिन्न पारिभाषिक शब्द हैं या एक ही शब्द के भिन्न नाम हैं। तन्त्र में एक मूल प्रकृति के ३ भाग होते हैं-महाकाली, महालक्ष्मी, महा सरस्वती। इनके पुनः ३-३ भाग होने से ९ भाग होते हैं, तथा मूल अज्ञात काली तत्त्व को मिला कर १० महाविद्या होती हैं।
तिस्रस्त्रेधा सरस्वत्यश्विना भारतीळा। तीव्रं परिस्रुता सोममिन्द्राय सुषुवुर्मदम्॥ (वाज. यजु. २०/६३)
= सरस्वती, इळा, भारती (अश्विन् द्वारा)-ये ३ देवियां पुनः ३-३ में विभाजित हैं। इनको सोम अर्पण से इन्द्र (या इन्द्रिय) की पुष्टि होती है।
बौद्ध साहित्य में १० महाविद्या को १० प्रज्ञा-पारमिता कहा गया है। महा-विद्या = विद्या का महः (महर्, महल, आवरण क्षेत्र)। प्रज्ञा = मन द्वारा बाह्य तत्त्व का ज्ञान। इसे वेद में प्रज्ञान-आत्मा कहा गया है-
यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥
(शिव सङ्कल्प सूक्त, वाज. यजु. ३४/३)
= जो विशेष प्रकार के ज्ञान का कारण है, जो सामान्य ज्ञान का कारण है, जो धैर्य रूप है, जो समस्त प्रजा के हृदय में रह कर उसकी समस्त इन्द्रियों को प्रकाशित करता है, जो स्थूल शरीर की मृत्यु होने पर भी अमर रहता है, जिसके बिना कोई कर्म नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन कल्याणकारी (शिव) सङ्कल्प से युक्त हो।
मन ५ ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान लेता है, ५ कर्मेन्द्रियों द्वारा शरीर चलाता है। ज्ञान कर्म के सम्बन्ध रूप में मन प्रज्ञान है। मन में अनन्त विचार आते रहते हैं, यह प्रज्ञान है। उनका व्यवस्थित रूप बुद्धि है। जिस इच्छा द्वारा कर्म की योजना बने वह सङ्कल्प है-सङ्कल्प मूलः कामो वै यज्ञाः सङ्कल्प सम्भवाः (मनु स्मृति, २/३)।
मन की क्रिया का महः या निकट आकाश में जो विस्तार है वह महाविद्या या प्रज्ञापारमिता है।
महाविद्या का उपदेश सुमेधा ऋषि ने परशुराम को दिया था, जब वे जनक के धनुषयज्ञ के बाद तप के लिए महेन्द्र पर्वत पर गये थे। यह उपदेश त्रिपुरा रहस्य के ३ विशाल खण्डों में है-ज्ञान खण्ड, माहात्म्य खण्ड, कर्म खण्ड (तृतीय उपलब्ध नहीं है)। यही सुमेधा ऋषि चण्डी पाठ के उपदेशक हैं। इनको बौद्ध साहित्य में सुमेधा बुद्ध कहा गया है। महेन्द्र पर्वत पर इनका स्थान ओड़िशा बा बौध जिला है। परशुराम के देहान्त के बाद ६१७७ ईपू में कलम्ब संवत् आरम्भ हुआ था। उन्होंने कर्णाटक तट पर शूर्पारक (बौद्ध साहित्य का सोपारा) नगर बनाया था जिसमें समुद्री जहाज लगाने के लिये सूप (शूर्प) की तरह तट की खुदाई की गयी था। उसकी पत्थर की ३० किमी. लम्बी दीवाल आज भी समुद्र में है, जिसे ८,००० वर्ष पुराना अनुमानित किया गया है। वननिधि समुद्र के जहाजों का घर होने के अर्थ में यह बन्दरगाह है। यहां लंगर का पतन होने से पत्तन है। गोलीय त्रिकोणमिति में ऊपर विन्दु को कदम्ब, निम्न विन्दु को कलम्ब कहते हैं। अतः बन्दरगाह को कलम्ब कहा गया (जैसे श्रीलंका का कोलम्बो) और परशुराम संवत् को कलम्ब संवत् (केरल का कोल्लम)।
१० महाविद्या में तारा की उपासना हिमालय क्षेत्रों में प्रचलित है, जिनको तिब्बत में डोलमा कहते हैं। तारा का कई प्रकार से वर्णन है, बौद्ध समाज में उनको चिकित्सा की देवी रूप में पूजा होती है- रोग से तारण या मुक्त करने वाली।
शाब्दिक तर्क रूप में बौद्ध दर्शन अनादि काल से है, जब भाषा की उत्पत्ति हुई। इसे सूत्र-बद्ध करने वाले को गौतम कहा गया। मन के भीतर वाक् के ३ पद हैं-परा, पश्यन्ती, मध्यमा। इनको गौ (ग = ३, तृतीय व्यञ्जन) कहते हैं, जिसका अर्थ वाक् या वाणी भी है। वाक् जब मन से बाहर कथन या लेखन रूप में निकलती है, उसे वैखरी कहते हैं। मन के भीतर के विचार को पूरी तरह शब्द में प्रकट नहीं कर सकते-भाषा, ज्ञान, या उपयुक्त शब्द उपलब्ध नहीं है। इसे तम (अन्धकार) कहते हैं। गौ तथा तम के भीतर सम्बन्ध को गौतम दर्शन कहते हैं। इस पद्धति से बौद्ध ज्ञान की व्याख्या करने वाले को भी गौतम बुद्ध कहते हैं। इस दर्शन में २ ही विकल्प हैं-सत्य, असत्य। गणित या विज्ञान में कई विकल्प हैं, उनके लिए अनेकान्त (जैन) या एकत्व (वेदान्त) दर्शन हुए।
२. मनुष्य बुद्ध-बुद्धत्व चेतना की सर्वोच्च स्थिति है जिसे गीता (२/७२) में ब्राह्मी स्थिति कहा गया है।
मनुष्य रूप में २८ बुद्धों का स्तूप (थूप) वंश में वर्णन है। प्रथम कश्यप बुद्ध थे, जिनको स्वायम्भुव मनु के बाद द्वितीय व्यास या ब्रह्मा कहा गया है। उस समय (१७५०० ईपू) में अदिति के पुनर्वसु नक्षत्र से वर्ष का अन्त तथा आरम्भ होता था जो वैदिक शान्ति पाठ में पढ़ा जाता है-अदितिर्जातम्, अदितिर्जनित्वम् (ऋग्वेद १/८९/१०, अथर्व ७/६/१, वाजसनेयि सं. २५/२३, मैत्रायणी सं. ४/२४/४)-वर्ष अन्त में पुनर्वसु आता है, उससे नया वर्ष आरम्भ होता है। कश्यप बुद्ध को चीन में फान या मञ्जुश्री कहा गया है, जिनसे भाषा की उत्पत्ति हुई। (एक बौद्ध ग्रन्थ है मञ्जुश्रीमूल कल्प)
परशुराम काल में सुमेधा बुद्ध थे। रामायण काल में चीन में अमिताभ बुद्ध हुए थे जिनको भारत में काकभुशुण्डि कहा गया है। यह मेरु (प्राङ्-मेरु = पामीर) के उत्तर पूर्व में थे (योग वासिष्ठ रामायण, निर्वाण काण्ड, भाग १ के अध्याय १४-१७)।
दीपङ्कर बुद्ध के शिष्य ओड़िशा के राजा इन्द्रभूति थे (बौद्ध धर्म और दर्शन-आचार्य नरेन्द्रदेव)। इन्द्रभूति की पुत्री लक्ष्मीङ्करा द्वारा बाउल गीत आरम्भ हुए जो बंगाल में प्रचलित हैं। इन्द्रभूति के शिष्यों द्वारा साधकों की लामा परम्परा आरम्भ हुई। इनके अनुकरण में इस्लाम में ज्ञानी को अल्-लामा कहते हैं।
महाभारत काल में जब नेपाल में किरात राजाओं का शासन था तो वहां शाक्यसिंह बुद्ध गये थे। वहां पशुपतिनाथ में लोक संहार का अस्त्र अर्जुन को मिला था जिसे पाशुपत (पशुपति का) कहते थे। इसका प्रयोग साइबेरिया (शिबिर) के निवातकवचों के विरुद्ध अर्जुन ने महाभारत के ६ वर्ष पूर्व ३१४५ ईपू में किया था (महाभारत, वन पर्व, ४०/१५-२०, अनुशासन पर्व, १४/२५८-२७५)।
सिद्धार्थ बुद्ध सबसे प्रसिद्ध हैं। इक्ष्वाकु वंश के भगवान् राम की ३५ वीं पीढ़ी में बृहद्बल थे जो महाभारत युद्ध में अर्जुन द्वारा मारे गये। बृहद्बल की २४ पीढ़ी बाद शुद्धोदन हुए जिनके पुत्र सिद्धार्थ का जन्म जन्म ३१-३-१८८६ ईसा पूर्व, शुक्रवार को कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी मृग वन) में हुआ जिस दिन वैशाख शुक्ल १५ (पूर्णिमा), ५९-२४ घटी तक थी। कपिलवस्तु के लिये प्रस्थान २९-५-१८५९ ईसा पूर्व, रविवार, आषाढ़ शुक्ल १५। बुद्धत्व प्राप्ति ३-४-१८५१ ईसा पूर्व, वैशाख पूर्णिमा सूर्योदय से ११ घटी पूर्व तक। शुद्धोदन का देहान्त २५-६-१८४८ ईसा पूर्व, शनिवार, श्रावण पूर्णिमा। बुद्ध निर्वाण २७-३-१८०७ ईसा पूर्व, मंगलवार, वैशाख पूर्णिमा, सूर्योदय से कुछ पूर्व। इनकी जन्म कुण्डली-लग्न ३-१-२’, सूर्य ०-४-५४’, चन्द्र ६-२८-६’, मंगल ११-२८-२४’, बुध ११-१०-३०’, गुरु ५-८-१२’, शुक्र ०-२३-२४’, शनि १-१६-४८’, राहु २-१५-३८’, केतु ८-१५-३८’। ये सभी तिथि-नक्षत्र-वार बुद्ध की जीवनी से हैं।
गौतम बुद्ध-सामान्यतः ४८३ ईसा पूर्व में जिस बुद्ध का निर्वाण कहा जाता है, वह यही बुद्ध हैं जिनका काल कलि की २७ वीं शताब्दी (५०० ईसा पूर्व से आरम्भ) है। इन्होंने गौतम के न्याय दर्शन के तर्क द्वारा अन्य मतों का खण्डन किया तथा वैदिक मार्ग के उन्मूलन के लिये तीर्थों में यन्त्र स्थापित किये। गौतम मार्ग के कारण इनको गौतम बुद्ध कहा गया, जो इनका मूल नाम भी हो सकता है। स्वयं सिद्धार्थ बुद्ध ने कहा था कि उनका मार्ग १००० वर्षों तक चलेगा पर मठों में स्त्रियों के प्रवेश के बाद कहा कि यह ५०० वर्षों तक ही चलेगा। आज की धार्मिक संस्थाओं में भ्रष्टाचार उनकी नजर में था। गौतम बुद्ध के काल में मुख्य धारा से द्वेष के कारण तथा सिद्धार्थ द्वारा दृष्ट दुराचारों के कारण इसका प्रचार शंकराचार्य (५०९-४७६ ईसा पूर्व) में कम हो गया। चीन में भी इसी काल में कन्फ्युशस तथा लाओत्से ने सुधार किये।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ४, अध्याय २१-
सप्तविंशच्छते भूमौ कलौ सम्वत्सरे गते॥२९॥ शाक्यसिंह गुरुर्गेयो बहु माया प्रवर्तकः॥३०॥
स नाम्ना गौतमाचार्यो दैत्य पक्षविवर्धकः। सर्वतीर्थेषु तेनैव यन्त्राणि स्थापितानि वै॥ ३१॥
अन्य बुद्ध- स्वयं सिद्धार्थ बुद्ध ने कहा है कि उनके पूर्व ७ बुद्ध हुये थे जिनमें केवल ३ की शिक्षा उपलब्ध थी क्योंकि वह लिखित रूप में थी-कनकमुनि क्रकुच्छन्द, कश्यप। अन्य ४ के उपदेश लिखित रूप में नहीं रहने के कारण लुप्त हो गये-विपश्यी, शिखि, विश्वभू, तिष्य (पुष्य, कलियुग)। (अश्वघोष का बुद्ध चरित) इसके अतिरिक्त नारद को भी एक बुद्ध माना गया है। सारनाथ के निकट निगलिहवा में मौर्य अषोक के शिलालेख में कहा है कि अशोक ने ४ बुद्धों के जन्मस्थान का भ्रमण करने के बाद राज्य के २०वें वर्ष में सारनाथ के स्तूप का आकार २ गुणा किया था। फाहियान ने ४ बुद्धों के समय और जन्मस्थान का वर्णन किया है। क्रकुच्छन्द (श्रावस्ती से १०० कि.मी. दक्षिण पश्चिम), कनकमुनि या कोणगमन (श्रावस्ती से ८ कि.मी. उत्तर), कश्यप बुद्ध (श्रावस्ती से १५ कि.मी. पश्चिम) हुये थे। सिद्धार्थ बुद्ध के निर्वाण के ३०० वर्ष बाद अर्थात् १५०७ ईसा पूर्व में धान्यकटक में मैत्रेय बुद्ध का जन्म लिखा है। एक धान्यकटक आन्ध्र के सातवाहन राजाओं की राजधानी थी। ओड़िशा की पूर्व राजधानी कटक भी धान्यकटक था जिसके निकट धान वाले कई स्थान हैं-धानमण्डल, शालिपुर (सालेपुर), चाउलियागंज। इसके निकट बुद्ध के कई स्थान हैं।
विष्णु अवतार बुद्ध इनसे भिन्न थे। प्रायः ८०० ईपू. में मगध में अजिन ब्राह्मण के पुत्र रूप में इनका जन्म हुआ। उस समय असीरिया की रानी सेमिरामी (मूल नाम का ग्रीक रूप) ने मध्य एशिया तथा उत्तर अफ्रीका के सभी राजाओं की सहायता से ३५ लाख की सेना भारत पर आक्रमण के लिए एकत्र की। भारत के हाथियों का डर था क्योंकि ८२४ ईपू. में नबोनासर की आक्रमणकारी सेनाको चेदिवंशी खारावेल की गज सेना ने मथुरा में पराजित किया था। अतः २ लाख ऊंटों को नकली सूंड लगा कर हाथी जैसा बनाया था। उनको रोकने के लिए विष्णु अवतार बुद्ध ने आबू पर्वत पर ४ राजाओं का संघ बनाया, जिसके अध्यक्ष मालवा राजा इन्द्राणीगुप्त थे जिनको ४ राज्यों का अध्यक्ष होने के कारण सम्मान के लिए शूद्रक कहा गया। ४ राजा थे-चाहमान, परमार, शुक्ल (चालुक्य. सोलंकी), प्रतिहार। देश रक्षा में अग्रणी होने के कारण इनको अग्निवंशी कहा गया। उस समय ७५६ ईपू. में शूद्रक शक आरम्भ हुआ। यह ३०० वर्ष तक चला जब ४५६ ईपू में श्रीहर्ष ने इसे समाप्त कर अपना राज्य किया। सिकन्दर के सभी समकालीन लेखकों ने इसे ३०० वर्ष का गणतन्त्र काल कहा है। इसका विस्तृत इतिहास भारत तथा पश्चिम एशिया में है, जिसे नष्ट करने के लिए विलियम जोन्स तथा पार्जिटर ने रायल एसियाटिक सोसाइटी में बहुत प्रयत्न किया। नष्ट करने की योजना भी विस्तार से उपलब्ध है। विष्णु अवतार बुद्ध के प्रयत्न से ३५ लाख की सेना में कोई व्यक्ति लौट नहीं सका। उसके बाद ६१२ ईपू में दिल्ली के चाहमान राजा ने निनेवे को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जिसके बाद चाप शक आरम्भ हुआ जिसका उल्लेख वराहमिहिर की बृहत्संहिता (१३/३) में है। कालिदास तथा ब्रह्मगुप्त ने इसी शक का प्रयोग किया है। अपनी मृत्यु के १०० वर्ष बाद आरम्भ हुए शालिवाहन शक का प्रयोग उनके द्वारा सम्भव नहीं था। नेपाल राजा अवन्ति वर्मन के १२ शिलालेख इस संवत् में हैं, तथा बाद के २ लेख विक्रम संवत् में।
३. हिमालय की देव जातियां-आकाश में देव का अर्थ वह उर्जा है जिससे निर्माण हो सकता है। जिस उर्जा से निर्माण नहीं होता वह असुर है। असुर देवों से ३ गुणा है, अतः विश्व का ३/४ भाग अनिर्मित है, जिसे अज्ञात पदार्थ कहते है।
मनुष्यों में जो स्वयं अपना उत्पादन करते हैं, वे देव हैं। उत्पादन चक्र को यज्ञ कहते हैं (गीता, ३/१०, १६)। परस्पर आधारित यज्ञों के द्वारा साध्य उन्नति के शिखर पर पहुंचे और उनको देव कहा गया-
यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्तः, यत्रपूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥
(पुरुष सूक्त, वाज. यजु, ३१/१६)
इसके विपरीत जो बल या असु द्वारा लूट कर सम्पत्ति बनाते थे, उनको असुर कहते थे। पोप ने रायल क्विण्टेट नियम बनाया था, जिसके अनुसार लूट का १/५ भाग पोप को देना था। इस्लाम में भी माले-गनीमत (लूट की स्त्रियां, सम्पत्ति) का १/५ भाग खलीफा को देना था।
पृथ्वी पर उत्तर गोल का नक्शा ४ भाग में बनता था जिनको भू पद्म का ४ दल कहते थे।(विष्णु पुराण, २/२/४, ४०) यह ४ रंगों में बनते थे जिनको मेरु के ४ पृष्ठों का ४ रंग कहा गया है। उज्जैन के ४५ अंश पश्चिम से ४५ अंश पूर्व तक विषुव से उत्तर ध्रुव (मेरु) तक को भारत दल कहते थे। भारत के पूर्व में भद्राश्व, पश्चिम में केतुमाल, विपरीत दिशा में कुरु वर्ष था।
उत्तर के ३ अन्य पाद (१/४ भाग) तथा के दक्षिण के ४ पाद-ये ७ भाग ७ तल या पाताल थे। भारत के दक्षिण पाद को तल या महातल कहते थे। भारत के पश्चिम उत्तर में अतल, दक्षिण में तलातल था। भारत के पूर्व में सुतल, उसके दक्षिण वितल था। विपरीत दिशा में पाताल, उसके दक्षिण रसातल है।
भारत दल में आकाश के ७ लोकों की तरह ७ लोक थे। आकाश के ३ धाम हैं-पूर्ण विश्व स्वयम्भू, ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी), सौर मण्डल। इनमें ३-३ लोक हैं। बीच के २-२ लोक समान हैं, अतः ७ लोक हैं। (ब्रह्माण्ड पुराण, ३/४/२/८-२१)
भारत दल के भी ३ मुख्य खण्ड हैं-भारत भू लोक, चीन तथा उसके निकट भाग मध्य लोक, रूस साइबेरिया आकाश हुआ। यह इन्द्र की त्रिलोकी थी। चीन के लोग इसी कारण अपने देश को भूमि तथा आकाश के बीच मध्य राज्य कहते थे। भू = पृथ्वी, भुवः = यूरेनस तक ग्रह (सौर वायु क्षेत्र), स्वःलोक जहां तक सूर्य प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है। महः लोक ब्रह्माण्ड की सर्पाकार भूजा में सूर्य केन्द्र से भुजा की मोटाई का गोल। इसके १००० तारा शेषनाग के १००० सिर हैं। गैलेक्सी या ब्रह्माण्ड जनः लोक है। जहां तक का ताप या प्रकाश पृथ्वी तक पहुंचता है वह तपः लोक है (दृश्य जगत्)। अनन्त विश्व सत्य लोक है।
पुनः ३-३ विभाजन के बाद के ३ लोक हुए-विन्ध्य से दक्षिण भू लोक, विन्ध्य हिमालय के बीच भुवः (मध्यदेश, नेपाल में मधेस), हिमालय स्वर्ग (त्रिविष्टप् या तिब्बत का अर्थ स्वर्ग है), चीन महः (ब्रह्मा ने यहां के लोगों को महान् कहा था। अभी केवल हान कहते हैं। मंगोलिया जनः लोक है। अरबी में मुकुल का अर्थ प्रेत है। आकाश का जनः लोक आत्मा की अन्तिम गति है। अरबी में जनः को जन्नत कहते हैं। साइबेरिया तपः लोक है (तपस् = स्टेपी)। ध्रुव वृत्त सत्य लोक है। आकाश के लोकों की तरह इनका भी ताप क्रमशः कम होता गया है।
त्रिविष्टप स्वर्ग होने के कारण हिमालय को देवतात्मा कहा गया है और यहां की जातियों को देव जाति। हिमालय को पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र तक दण्ड की तरह फैलाने पर उससे दक्षिण समुद्र तक का क्षेत्र भारत वर्ष कहा गया है।
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्यः स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥
(कालिदास का कुमारसम्भव, १/१)
इसी विशाल भारत का चित्र नेपाल का ध्वज है। ध्वज-दण्ड हिमालय है। ऊपर या पूर्व त्रिकोण बर्मा से इण्डोनेसिया तक का भाग है। नीचे या पश्चिम का त्रिकोण कुमारिका खण्ड या अविभक्त भारत है।
अविभक्त भारत विश्व का केन्द्र या हृदय था। अतः इसका चिह्न हृदय चिह्न होता है, जो नीचे के त्रिकोण को ऊपर के अर्ध चन्द्राकार हिमालय से जोड़ने पर बनता है। इसके ९ खण्ड थे-(१) वरुण पश्चिम लोकपाल (अरब, इराक), (२) गान्धर्व (ईरान, अफगानिस्तान), (३) सौम्य (उत्तर में तिब्बत, सोम या चन्द्र की तरह ठण्ढा) (४) कुमारिका (वर्तमान भारत, पाक, बंगलादेश-अधोमुख त्रिभुज आकार होने से शक्ति त्रिकोण, मुख्य खण्ड होने से शक्ति का मूल रूप कुमारी), (५) ताम्रलिप्ति (सिंहल, वर्तमान श्रीलंका), (६) इन्द्रद्वीप (बर्मा से वियतनाम तक-पूर्व के लोकपाल इन्द्र, कम्बोडिया का केन्द्र गरुड़ स्थान था, उस जिले का नाम बैनतेय = गरुड है। (७) नाग द्वीप-अण्डमान से बाली द्वीप तक, (८) कशेरुमान् (बोर्निओ, फिलीपीन, सेलेबीज तक), (९) गभस्तिमान (पपुआ न्यूगिनी)-इसकी एक नदी गभस्ति को शक द्वीप आस्ट्रेलिया का कहा गया है। (मत्स्य पुराण, ११४/५-१५)
तिब्बत का मूल नाम त्रिविष्टप है जिसका अर्थ स्वर्ग होता है। विष्टप् या विटप का अर्थ वृक्ष है। भूगोल की भाषा में जल-ग्रहण क्षेत्र (Catchment, watershed) है। वृक्ष की जड़ हजारों रेशों से मिट्टी से जल लेकर पत्तों तक पहुंचाता है। इसी प्रकार एक क्षेत्र का जल सैकड़ों छोटी धाराओं से आकर एक नदी की धारा बनती है। समुद्र के निकट जहां धारा कई भागों में बंटती है उसे धारा का उलटा राधा कहते हैं। पश्चिम भाग विष्णु विटप है जहां का जल सिन्धु नद से सिन्धु समुद्र (वर्तमान अरब सागर) में मिलता है। मध्य के शिव विटप (शिव जटा) का जल गंगा में मिल कर गंगा सागर (वर्तमान नाम बंगाल की खाड़ी) में मिलता है। पूर्व भाग ब्रह्म विटप है, जिसका जल ब्रह्मपुत्र से हो कर गंगा सागर में मिलता है। इस अर्थ में इसे ब्रह्मा का क-मण्डल कहते थे (क = जल)। भारत का पूर्व तट करमण्डल या कारो मण्डल है। ब्रह्मपुत्र के बाद का स्थान ब्रह्म देश है। ३ विटपों का केन्द्र कैलास शिव का स्थान है।
हिमालय की देवजातियों का नाम अमरकोष (१/१/६) में है-
पिशाचो गुह्यको सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः।
पश्चिमी भाग लद्दाख आदि की भाषा पैशाची थी जिसमें गुणाढ्य की बृहत् कथा लिखी गयी थी।
मध्य भाग सिद्ध था जिसकें राजधानी लासा तथा काल्पनिक सांग्रीला है।
दक्षिण भाग गुह्यक नेपाल में है। विक्रमादित्य ने यहां गुह्यक साधना करने के बाद उज्जैन राजधानी से १८० जनपदों का विशाल साम्राज्य स्थापित किया (ज्योतिर्विदाभरण, अध्याय २२)। बौद्ध साहित्य में एक गुह्यकसमाज तन्त्र भी है। सम्भवतः नेपाल राजा अवन्तिवर्मन ने उनकी सहायता की थी, अतः पशुपतिनाथ से ही ५७ ईपू में विक्रम संवत् का आरम्भ हुआ। अवन्तिवर्मन के पुत्र जिष्णुगुप्त की राजनीति में रुचि नहीं थी अतः वे ज्योतिष शोध के लिए विक्रमादित्य के पास चले आये। इनका विद्वान् रूप में वराहमिहिर (बृहज्जातक, अध्याय ७) तथा कालिदास (ज्योतिर्विदाभरण, अध्याय २२) ने किया है। इनके पुत्र ब्रह्मगुप्त जिष्णुसुत के नाम से प्रसिद्ध थे जिनकी प्रसिद्ध पुस्तक ब्राह्म-स्फुट-सिद्धान्त है। इन सभी की गणना ६१२ ईपू के शक के अनुसार है, पर अंग्रेजी अनुकरण से इनकी गणना शालिवाहन शक के अनुसार करते हैं जो वराहमिहिर की मृत्यु के ८३ वर्ष बाद ७८ ई. में आरम्भ हुआ था।
पूर्व हिमालय भूत क्षेत्र था (भूटान तथा अरुणाचल प्रदेश) जहां की भूत लिपि का प्रयोग तन्त्र में है।
४. मणि पद्म-आकाश गंगा के समुद्र में उसकी सर्पाकार भुजा शेषनाग है, जिसके ७ खण्डों को ऋग्वेद (९/५४/२) में आकाशगंगा की ७ धारा कहा गया है। उस पर सूर्य रूपी विष्णु शयन कर रहे हैं। उनके आकर्षण की कक्षा में पृथ्वी है जिस पर मनुष्य ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का विकास हुआ। इसे प्रतिमा रूप में शयन स्थिति में विष्णु के नाभि कमल पर ब्रह्मा की मूर्ति बनती है (जैसे तिरुअनन्तपुरम का पद्मनाभ मन्दिर)।
आकाश और शरीर के चक्र-शरीर के भीतर मेरुदण्ड के ५ चक्र नीचे से आरम्भ कर भूमि, जल, तेज, वायु और आकाश तत्त्वों के स्वरूप है। विश्व के ५ पर्व भी इन्हीं के स्वरूप है। विश्व पर्वों के संकेत माहेश्वर सूत्र के ५ स्वर हैं-अइउण्। ऋलृक्। उनकी प्रतिमा रूप सुषुम्ना के ५ चक्र के बीज मन्त्र इनके सवर्ण अन्तःस्थ वर्ण हैं-हयवरट्। लण्।
मेरुदण्ड के ऊपर आज्ञा चक्र भ्रूमध्य के पीछे है जिसमें शिव-शक्ति का समन्वय है-अर्द्धनारीश्वर रूप। इसका आकाश में प्रतीक कह सकते हैं पदार्थ-ऊर्जा का मिश्र रूप। यह विस्तार ब्रह्माण्ड के आवरण रूपी कूर्म तक है। उसके बाहर अनन्त आकाश की प्रतिमा सिर के ऊपर सहस्रार चक्र है।
आकाश के पर्व चिह्न तत्त्व शरीर के चक्र चिह्न
१. अव्यक्त अनन्त एक ॐ अव्यक्त सहस्रार एक ॐ
२. हिरण्यगर्भ विभक्त ॐ पदार्थ-ऊर्जा आज्ञा विभक्त ॐ
३. स्वयम्भू मण्डल अ आकाश विशुद्धि ह
४. ब्रह्माण्ड इ वायु अनाहत य
५. सौरमण्डल उ तेज स्वाधिष्ठान व
६. चान्द्र मण्डल ऋ अप् मणिपूर र
७. भूमण्डल लृ भूमि मूलाधार ल
यहां स्वाधिष्ठान-मणिपूर का क्रम सृष्टि क्रम में है। साधना नीचे से ऊपर होती है, अन्नमय कोष से परमात्मामय कोष तक, उसमें मूलाधार के बाद मेरुमूल में स्वाधिष्ठान तब नाभि के पीछे मणिपूर चक्र होता है।
अन्नमय कोष से उत्थान का वर्णन पुरुष सूक्त में है-उतामृतत्वस्येशानो तदन्नेनातिरोहति (वाज. सं. ३१/२)
सृष्टि क्रम से चक्र तथा तत्त्वों का वर्णन शंकराचार्य ने किया है-
महीं मूलाधारे, कमपि मणिपूरे हुतवहं, स्थितं स्वाधिष्ठाने, हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये, सकलमपि भित्वा कुलपथं, सहस्रारे पद्मे, सह रहसि पत्या विहरसि॥
(सौन्दर्य लहरी, ९)
हिमालय में अधिक ठण्ड है, अतः वहां मणिपूर चक्र से साधना आरम्भ होती है जिससे पहले शरीर में शक्ति तथा ताप मिले। मणिपूर चक्र पाचन केन्द्र है, अतः वह अग्नि (हुतवह, अन्न का वहन या पाचन) केन्द्र है। अतः साधना आरम्भ ’मणिपद्मे हुं’ मन्त्र से होता है।
गुरु दीक्षा से उन्नति के लिये मस्तिष्क केन्द्र के आज्ञा चक्र से साधना आरम्भ करते हैं, जो भ्रूमध्य के पीछे है (गीता, ५/२७, ८/१०)। भौगोलोक रूप में भारत विश्व सभ्यता केन्द्र रूप में विष्णु रूप है। हिमालय के पूर्व छोर पर नाभि रूप मणिपुर है, जिसके बाद ब्रह्मा का देश है।
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