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अधखिली कली

अधखिली कली

-सविता शुक्ला
विभिन्न चेहरों में ढूंढती है वो
अपना चेहरा
और तुलनात्मक विश्लेषण करके
यों मुरझा जाती है
मानों ज्यादा धूप न मिलने पर
कलियां अधखिली ही सूखने लगती हैं
क्यों भूल जाती है वो
हर कली की अपनी महक होती है
अपनी खूबसूरती होती है
अधखिली कली भी चंद लम्हों के लिए ही सही
खुशियां बिखेरती है
उसका भी अपना चेहरा है
उसका भी अपना अस्तित्व है
फिर तुलनात्मक विश्लेषण क्यों करना .

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