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प्रतिष्ठा का सच

प्रतिष्ठा का सच

ऋषि रंजन पाठक
जो कल तक सलाम बजाते थे,
आज राहों में नजर चुराते हैं।

जब तक थे हम काम के,
हर दिल में थे नाम के।
चमकते थे आँखों में हम,
जैसे सूरज के संग सवेरा तम।

मगर जब हाथ रुकने लगे,
पंख जैसे झुकने लगे।
वो जो सलाम करते थे,
अब नजरें चुराने लगे।

जहाँ थी कभी वाह-वाह,
वहाँ अब बस है खामोश राह।
जो कंधे मिलते थे सदा,
अब दूर खड़े हैं, अलग दिशा।

इज्जत जो कभी लहराती थी,
अब वक्त की धूल में छुप जाती थी।
कद्र तभी तक, जब तक सहारा हो,
वरना हर रिश्ता बस एक किनारा हो।

जब तक चलती रही नाव,
लोग आते रहे, देते थे दांव।
हमारे सहारे पार जो हुए,
हाथ जोड़ कर सिर भी झुके।

मगर जब लहरों से हार गए,
अपने ही किनारे पर ठहर गए।
जिनकी राहों में दीप जलाए,
उन्होंने ही मुंह को फेरे आए।

सम्मान का सूरज ढल गया,
काम का चाँद भी गल गया।
जिन आँखों में चमक थी हमारी,
अब वो खोजती नहीं तस्वीर पुरानी।

यह दुनिया का यही दस्तूर है,
जहाँ स्वार्थ हर रिश्ता दूर है।
काम के हो, तो मसीहा कहलाओ,
वरना भीड़ में गुम हो जाओ।

कद्र तभी तक, जब तक फलक पर हो,
गिरते ही हर रिश्ता छलक पर हो।
इसलिए आत्मसम्मान को जानो,
दुनिया के रंग को पहचानो।

यह दुनिया का रुखा सच है,
जो केवल दिखावे का कद है।
जब तक हो उपयोगी, तभी तक अहमियत,
वरना रह जाती बस बीती सी कहानियत।

तो मत बांधो सम्मान का स्वप्न,
अपने कर्मों में रखो जीवन का यत्न।
लोग बदलेंगे, यह नियति है,
अपना रास्ता खुद ही प्रगति है।
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