घर आए लेकिन
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•(पूर्व यू.प्रोफेसर)
घर आए लेकिन रहे इतना मगरूर,
उनसे यारब कुछ बोला न गया।
मैं रहा उबलता अन्दर ही अन्दर,
राज दिल का मुझसे भी खोला न गया।
जान छिड़कने से पड़ा कुछ भी न फर्क,
जो मरम जीस्त का कभी तोला न गया।
रात बरसती रही मुसल्सल रात भर,
हैफ जरा भी दिन का शोला न गया।
चुभते ही रहे काँटे पैरों में पैहम ,
गजब है कि फिर भी फफोला न गया।
भेद खुल गया सम का लगते ही लब,
था शकर जो उसमें घोला न गया।
(सम =विष)
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