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कुछ छूट गया है ..

कुछ छूट गया है ..

कुछ छूट गया है,
आंगन के कोने में,
जहां कभी गूंजती थीं,
पायल की छमछम ,
और चूड़ियों की खनक ।
अब वह झूला—
खाली है, चुपचाप,
आतुर बहुत कुछ कहने को ।
चिड़िया चहक रही है,
पर उसकी चहचहाहट में
है एक खालीपन,
शायद बिटिया की हंसी का
सुर नहीं पकड़ पा रही।
गिलहरी फुदकती है,
बेल-बूटों से सजी गुफाओं में,
जैसे वे बेलें,
पुकार रही हों—
"कहाँ गई वह ?,
जो हमारी नई पत्तियों को
अपने कोमल स्पर्श से सहलाती थी"
सूरज की किरणें
अब भी आंगन पर गिरती हैं,
पर उनमें वह गर्माहट नहीं,
जो उसकी आंखों से टकराकर
उष्ण हो जाया करती थीं।
सूनी पगडंडियाँ ,
जिन पर दौड़ती थीं,
उसकी छोटी-छोटी पदचापें,
अब चुपचाप लेटी हैं,
जैसे हों किसी अनंत प्रतीक्षा में।
पिता का मन
एक ठहरे हुए जल की तरह ।
भीतर की गहराई
हर स्मृति को
बहा रही है ,अश्रु का रूप देकर ।
वही आंसू,
गिरकर आँगन की धुल में
गाढ़ा कर रहा है उस मिटटी को ।
बेलें कहती हैं,
"हमने तो कोशिश की उसे पकड़ने की ,
अपने पास बिठाने की ,
पर वह तो फुर्र से उड़ गई,
एक नई डाली,
एक नए आंगन की ओर।"
झूला कहता है,
"मैं अब भी हिल सकता हूं,
पर उस स्पर्श के बिना,
यह हलचल बेमानी है।"
आंगन की ईंटें कहती हैं,
"उसका हर पगचिन्ह
उकेरा हुआ है स्मृति में ।"
पिता सोचता है,
क्या हर बेटी
अपने आंगन से
इस तरह छूट जाती है?
क्या हर घर का कोना
इस विदाई को
ऐसे ही सहेजता है?
और तभी,
एक गिलहरी,
झूले पर बैठकर,
नटखट तरीके से कूद पड़ती है
उसकी गोद में ।
पिता की आंखों में,
एक हल्की मुस्कान
और एक गहरी टीस
एक साथ उभरती है।
कुछ छूट गया है,
पर वह छूटा हुआ
अब हर कोने में,
हर हवा के झोंके में,
हर पत्ते की सरसराहट में
एक जीवन्त स्मृति बन गया ।
(डॉ. मुकेश असीमित)
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