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मर चुका हूँ, दुनिया जहान के लिये

मर चुका हूँ, दुनिया जहान के लिये,

जिन्दा हूँ मगर, खास काम के लिये।
बहता पानी होता है, जागीर प्यासे की,
मत रुख बदल, खारे मुकाम के लिये।
पहूँच दरिया पर, "मै" को डूबा आया,
बाकी बचा हूँ, किसी इम्तिहान के लिये।
चाहता हूँ जीना यूँ ही, यहाँ तन्हा होकर,
अन्जान रहकर भी, पहचान के लिये।
मत तलाशना वजूद मे, अतीत को मेरे,
चाहत कुछ करने की, वर्तमान के लिये।
चिपका रहा अतीत से, दर्द जान न सका,
जीना चाहता हूँ, दर्द के अवसान के लिये।

डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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