दीवानगी के पार,सदा प्रतिद्वंदी संसार
स्वप्निल आभा यथार्थ स्पंदन,अंतरतम वसित अनूप छवि।
नेह वश चाल ढाल,
हाव भाव श्रृंगार नवि ।
पर हर कदम व्यंग्य जुल्म सितम सह,
चाह आकांक्षा सीमा अपार ।
दीवानगी के पार,सदा प्रतिद्वंदी संसार ।।
निहार दैहिक सौष्ठव,
मचल रहीं वासनाएं ।
तृप्ति राह काम तृषा,
छल रूप आशनाएं ।
पर लांघ कर लोक लज्जा,
सारे स्वार्थी प्रस्ताव किए अस्वीकार ।
दीवानगी के पार,सदा प्रतिद्वंदी संसार ।।
प्रतीक्षा काल अग्नि परीक्षा,
दोनों मध्य वृहत बाधा ।
बंधन प्रयास अतिक्रमण,
दमन चक्र प्रभाव ज्यादा ।
पर अखंड प्रेम ज्योत उत्संग,
आलोक संग मिलन आधार ।
दीवानगी के पार,सदा प्रतिद्वंदी संसार ।।
विमल मृदुल मोहिनी आहट ,
संकेत प्रियेसी शुभ आगमन ।
अर्पण तर्पण समर्पण फलन,
सिय हृदय सदृश राघव रमन ।
युग युगांतर अद्भुत अवसर,
प्रणय अब परिणय सूत्रधार ।
दीवानगी के पार,सदा प्रतिद्वंदी संसार ।।
कुमार महेंद्र
(स्वरचित मौलिक रचना)
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