चलती रहीं साँसें मगर जीना न आया।
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
चलती रहीं साँसें मगर जीना न आया।
बखिया रहे उधेड़ते, सीना न आया ।
गुजर गए छलकाते कितने ही रिंद,
थामे रह गए जाम, पीना न आया।
चमन में जब खिलखिलाते फूल धधक के,
बरस गुजरे पर वो माहीना न आया।
जिंदगी का मरम क्या जाने मर्दूद,
जिसके चीनेजबीं प पसीना न आया।
गर्क जिसमें हो जायँ टूटे सब सपने,
मैक़दे हस्ती में वो मीना न आया ।
(शुद्ध 'माहीना 'ही है,हालाँ कि प्रचलित 'महीना ' है। )
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