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टूटते पुरूष

टूटते पुरूष

तस्वीर के दो पहलू
क्या कभी देखना चाहा
तस्वीर के पीछे
शायद नहीं।
तुमने देखा
मेरा चेहरा
रूप और ऱंग
जो सामने था।
जब भी चाहा बताना
तस्वीर के पीछे का सच
तुम उठ कर चली गई
और
मैं घुटता रहा
आफिस के तनाव से।
घर आते ही
तुम्हारी फरमाइशों
और घर की जरूरतों से उपजे
निरर्थक संवाद से।
जानता हूँ
उसमें तुम्हारी गलती नहीं थी
मगर कभी एक बार
समझा तो होता मुझे भी
सीमित आय खर्च अधिक
तुम्हारे सपने पूरे करने की चाह
दिन भर बोस की चिक-चिक।
सच है कि तुम टूटी हो
शीशे की तरह
और मैं भी तो बिखर गया हूँ
किरच किरच खुद के भीतर।
तुम हल्का कर लेती हो
कहकर अपना दर्द और पीड़ा
कभी मुझे
और कभी अपनी माँ भाभी या सहेली से।
मगर मैं पुरुष हूँ
अहंकार भी है मुझमें
नहीं कहूँगा
अपना दर्द किसी से
घुटता रहूँगा भीतर ही भीतर
रोता रहूँगा शुष्क नयनों से
क्योंकि नहीं चाहता
कोई कहे कमजोर
और सलाह दे
मर्द टूटा नहीं करते
रोया नहीं करते।
हाँ सोचता हूँ
कभी तो समझोगी मुझे
मेरे अहसासों को
मेरे गुस्से को
जो नहीं चाहते भी
अक्सर प्रकट हो जाता है तुम पर।
काश कभी देख पाती
मेरे आँसू
मेरी कमीज़ की बाजू
जो अक्सर भीग जाती है
तुमसे लड़ाई के बाद।
काश
तुम समझ पाती
मेरा अनकहा प्यार
जो करता हूँ तुमसे
अपरम्पार।


अ कीर्ति वर्द्धन
५३ महालक्ष्मी एनक्लेवमुज़फ़्फ़रनगर उ प्र
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