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चाहते हो रोशनी को मुट्ठियों में‌ बाँ‌धना।

चाहते हो रोशनी को मुट्ठियों में‌ बाँ‌धना।

डॉ रामकृष्ण मिश्र
चाहते हो रोशनी को मुट्ठियों में‌ बाँ‌धना।
चलो मिल कर साथ सारे उगाएँ सूरज नया।।
जलन की गट्ठर उठाये द्वेष की दीवार तक।
बनाना है तोड़ हमको घोसला फिरसे नया।।
स्वार्थ जिद्दी जब कभी प्रतिकार पर आरूढ़ हो।
हो सके तो त्याग का सद्भाव गढ़ लेंगे नया।।
अपने -अपने घरो के आँगन के आनन देखिए।
फिर अलाव सुलग न पाए कलह का कोई नया।।
आसुरी अति सोच में आतंक का पलना सरल।
क्यों नहीं संवेद्य चिंन्तन- दीप बारे हम नया।।
बस्तियों में घूमने पाये न कोई सिरफिरा।
सोचना है हमें अब तरकीब कोई फिर नया।।
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