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सादगी का श्रृंगार

सादगी का श्रृंगार

ऋषि रंजन पाठक
तुम्हें सजने-संवरने की क्या जरूरत है,
तुम तो सादगी में ज्यादा खूबसूरत लगती हो।
सच कहूं, सजावट छुपा देती है तेरी खूबसूरती,
ये तो बस सादगी के आईने में दिखती है।
तेरे चेहरे पर है वो मासूम सा नूर,
जो किसी गहने से नहीं होता है भरपूर।
तेरी बातों की मिठास, तेरी हंसी की चमक,
हर बनावट के पार, रखती है तुझे अलग।
तेरे बालों की लटें बेतरतीब ही सही,
वो हवा संग बहकर और निखरती हैं।
तेरी आँखों में जो मासूमियत की धारा है,
वो किसी काजल से नहीं, खुद ही संवरती हैं।
ना मेहंदी, ना चूड़ियों की खनक चाहिए,
सच कहूं, सजावट बेमानी सी लगती है।
तू यूं ही बिना किसी आडंबर के रहना,
तेरा सौंदर्य, तेरी सरलता,सबसे सच्ची लगती है।
तेरी हंसी में बसी है मीठी सी गूंज,
जो हर दुख-दर्द को अपने आप दूर करती है।
तू जो है, जैसी है, वैसी ही अनमोल है,
हर बनावट के आगे तेरा व्यक्तित्व अनुपम अपरिमेय है।
सादगी में बसी है, हर सुंदरता की जान,
हर रूप में छिपा है, एक दिव्य विधान।
गहनों से नहीं, दिल से चमकते हैं लोग,
सादगी में छुपा है, सच्चे सौंदर्य का योग।
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