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आरोपों के पार

आरोपों के पार

ऋषि रंजन पाठक

क्यों केवल मर्दों पर दोष लगाते हो,
हर आँख में वासना का चश्मा दिखाते हो।
कभी झांक कर देखो अपने भीतर,
शायद तुम्हारे आचरण में भी कोई खोट हो।


जो सम्मान का बीज बोया न गया,
क्यों दोष दो कि वृक्ष खड़ा न हुआ।
आदर और प्रेम की राह छोड़कर,
क्या पाया केवल कटुता की ओर मोड़कर।


मर्द पर स्त्री को वस्तु मानने का आरोप लगाते हो,
पर खुद की सोच में क्या झांक पाते हो?
क्यों हर बार परखे बिना फैसला सुनाते हो,
क्या तुम्हारी दृष्टि सदा निष्पक्ष रहती है?


स्त्री हो या पुरुष, दोनो के हिस्से है समानता,
कभी समझो यह जीवन की गहराई की बात।
दोष न दो केवल मर्द को हर बार,
सिर्फ एक पक्ष से नहीं होता सच्चाई का विस्तार।


मूल्यांकन करो दोनों पहलुओं का,
दुनिया चलती है स्नेह और सहृदयता से।
सम्मान से ही रिश्ता फलता-फूलता है,
आरोप-प्रत्यारोप में बस जीवन झूलता है।


जब कहते हो तुम, कि मर्द वस्तु समझते हैं,
उनकी आँखें बस देह की भाषा पढ़ते हैं।
तो सोचो ज़रा, ये विचार आया कैसे,
क्या हर कहानी का अंत एक जैसा ही होता है?


क्या रिश्ते में केवल पुरुष दोषी है,
या दोनों तरफ कहीं न कहीं कोशिशे अधूरी हैं?
क्यों हर बार एक लांछन का भार उठाते हैं,
पुरुष भी तो प्रेम, सम्मान के अधिकारी हैं।


हर निगाह वासना की नहीं होती,
हर कदम का मतलब गलत नहीं होता।
दोषारोपण से पहले मन को टटोला करो,
क्या तुम्हारे मन में भी कहीं द्वेष न हो।


इंसानियत के रिश्ते हैं, देह से परे,
क्यों इन बातों को नफरत से भरे।
सिर्फ देह नहीं, मन को भी समझना होगा,
संबंधों को फिर से परिभाषित करना होगा।


दुनिया तो सुंदर है, दृष्टि के हिसाब से,
आरोपों से परे देखो, प्रेम के चिराग से।
जो दोषी है, उसे दोष दो, पर सभी पर नहीं,
सामंजस्य से ही जिंदगी की राह बनती है सही।
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