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शरद पूर्णिमा का प्रसाद - महर्षि वाल्मीकि

शरद पूर्णिमा का प्रसाद - महर्षि वाल्मीकि

डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
कवीन्द्रं नौमि वाल्मीकिं यस्य रामायणीकथाम्।
चन्द्रिकामिव चिन्वन्ति चकोरा इव साधवः॥
महर्षि वाल्मीकि वैदिक काल के वैसे ऋषि हैं जिन्होंने काव्य शास्त्र की रचना आरंभ की। दुनिया का पहला काव्य ग्रंथ रामायण है जो महर्षि वाल्मीकि के द्वारा प्रणीत है। महाभारत आदि ग्रंथों की रचना इसी के आधार पर हुई है ।
काव्यबीजं सनातनम्॥
वाल्मीकीय रामायण की वेद तुल्य प्रतिष्ठा है,क्यों कि वाल्मीकि आदि कवि हैं ।इसीलिए वाल्मीकीय रामायण को भूतल का प्रथम महाकाब्य होने का गौरव प्राप्त होने से महर्षि वाल्मीकि सभी कवियों के गुरु हैं ।
पठ रामायणं व्यास काव्यबीजं सनातनम्॥
बृहद्धर्म॰!/30/47
महर्षि वाल्मीकि के जन्म से सम्बन्धित कई प्रसंग मिलते हैं -
मनुस्मृति 1/35 के अनुसार ये प्रचेता के पुत्र हैं। तद्नुसार प्रचेता महर्षि वशिष्ठ, भृगु, नारद के सहोदर भाई हैं।
प्रचेतसं वशिष्ठं च भृगु नारदमेव च॥
बाल्मीकि रामायण के 7/ 96, 18/5, 13/16 में इन्होंने स्वयं अपने को प्रचेता का पुत्र कहा है।
वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षात् रामायणात्मना ॥
अध्यात्म रामायण के 7/7/31 के अनुसार . प्रचेता के पुत्र हैं परंतु इनका पालन-पोषण एक निषाद के घर में हुआ।
- बाल्मीकि रामायण पृ॰4, गीता प्रेस।
इनके आश्रम कई स्थानों पर मिलते हैं ।बिहार के गया में भी इनका आश्रम मिलता है जिसे पौराणिक ग्रंथों में धर्मारय कहा गया है, ।कुछ लोग प्रयाग से चौदह मील दक्षिन पश्चिम में स्थित कौशम गाँव (कौशाम्बी) बताते हैं ।वाल्मीकि रामायण के अनुसार इनका आश्रम तमसा के तीर पर था -
स मुहुर्ते गते तस्मिन् देवलोकं मुनिस्तदा।
जगाम तमसा तीरं जाह्न्व्यास्त्वविदूरतः॥
वा रा 2=3
वा रा / 3/3
आगे-
स प्रविश्याश्रमपदं शिष्येण सह धर्मवित्।
उपविष्टः कथाश्चान्याश्चकार ध्यानमास्थितः॥
वा रा 3/22
कुछ टिकाकारों ने इसे कानपुर के बिठूर -आश्रम सिद्ध किया है ।
बी इच बड़ेर ने रामयणाङ्क (कल्याण) पृ॰ 496 में इनका आश्रम प्रयाग से बीस मील दक्षिण में होना कहा है ।
सम्मेलन पत्रिका 43/ 2-13 के अनुसार इनका आश्रम प्रयाग-झांसी एवं राजापुर-मानिकपुर पथों के संगम पर बताया है ।
गोसांई चरित के अनुसार यह आश्रम सीतामढ़ी-दिग्वारीपुरा के बीच अवस्थित था ।
वैदिक गणना के अनुसार ईनका जन्म शरद पुर्निमा को हुआ था तथा इनके जीवन से सम्बद्ध क्रौंच बद्ध का दिन भी शरद पूर्णिमा ही था ।
बाल्मीकि का रचना काल-; विभिन्न विद्वानों ने 7 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के शुरुआती चरण को ही रचनाकाल माना है। कुछ भारतीय कहते हैं कि यह 700 ई पू से पहले लिखा गया। उसके पीछे युक्ति यह है कि महाभारत जो इसके पश्चात आया बौद्ध धर्म के बारे में मौन है ,यद्यपि उसमें जैन, शैव, पाशुपत आदि अन्य परम्पराओं का वर्णन है। अतः रामायण गौतम बुद्ध के काल के पूर्व का होना चाहिये। भाषा-शैली से भी यह पाणिनि के समय से पूर्व का परिलक्षित होता है, पर यह प्रकरण विवादास्पद है।
“रामायण का पहला और अन्तिम कांड संभवत: बाद में जोड़ा गया था।
रामायण का समय त्रेतायुग का माना जाता है। हिन्दू कालगणना चतुर्युगी व्यवस्था पर आधारित है जिसके अनुसार सम्पूर्ण अवधि को चार युगों में बाँटा गया है- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एव कलियुग। प्रत्येक चतुर्युग (४३, २०, ००० वर्ष) के बााद पुनरावृत्ति होती है। एक कलियुग ४, ३२, ००० वर्ष का, द्वापर ८, ६४, ००० वर्ष का, त्रेता युग १२, ९६, ००० वर्ष का तथा सतयुग १७, २८, ००० वर्ष का होता है। इस गणना के अनुसार रामायण का समय न्यूनतम ८, ७०, ००० वर्ष (वर्तमान कलियुग के 5, 118 वर्ष + बीते द्वापर युग के ८, ६४, ००० वर्ष)सबका योग सिद्ध होता है।
रामायण मीमांसा के रचनाकार धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी, गोवर्धन पीठ, पुरी के शंकराचार्य, पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र, श्रीराघवेंद्रचरितम् के रचनाकार श्रीभागवतानंद गुरु आदि के अनुसार श्रीराम अवतार श्वेतवाराह कल्प के सातवें वैवस्वत मन्वन्तर के चौबीसवें त्रेता युग में हुआ था जिसके अनुसार श्रीरामचंद्र जी का काल लगभग पौने दो करोड़ वर्ष पूर्व का है। इसके सन्दर्भ में मानस पीयूष, भुशुण्डि रामायण, पद्मपुराण, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, संजीवनी रामायण एवं अन्य पुराणों से प्राप्त प्रमाण विचारणीय हैं। परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि रामायण की रचना श्री राम के समय में ही हुई थी।
भगवान बाल्मीकि से जुड़ी कथाएँ सर्व बिदित हैं। बचपन के बाल्मीकि, रत्नाकर प्रचेता के पुत्र होकर भी कैसे निषाद हुए और जंगल मैं डाकुओं के सरगना बन गए। महर्षि नारद का पधारना उनसे उनकी बीणा छिनना, ऊनका उपदेश देना, घरवालों से उस आदेश का सत्यापन और फिर घनघोर तपस्या करना कहानी के रूप में सर्व बिदित है। तपस्या में समाधिस्त होने से देह-दशा बिसर गई, शरीर पर दीमक (बल्मीक) जम जाने कारण रत्नाकर बाल्मीकि हुए।
एक दिन नारद जी ने आकर इन्हें राम कथा सुनाई। यह वही कथा थी जो भगवान शंकर ने जगत- जननी पार्वती को सुनाई थी।
नारद जी के जाने के बाद महर्षि बाल्मीकि अपने पटु शिष्य भरद्वाज को साथ लेकर गङ्गा की ओर चल दिए। गङ्गा के पहले ही तमसा के पङ्क रहित घाट और निर्मल जलधारा को देख कर स्नान की ईच्छा से जल प्रवाह मे जाना ही चाहते थे कि उनकी नजर एक क्रौंच पक्षी के जोड़े की मिथुनावस्था पर पड़ी। उसी क्षण एक ब्याधे के तीर से नर क्रौंच को मरते एवं मादा को छटपटाते देखा। करुणा एवं क्रोध के समन्वय से उनके मुख से एक श्लोक निकल गया-
मा निषाद प्रतिष्ठांत्वमगमःशाश्वतीः समा।
यत् त्क्रौंच निथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥
बा रा 1/2/15
बस, स्नान कर भरद्वाज कर्तब्य-अकर्तब्य पर चिन्ता -चिन्तन करते आश्रम पहूंचे। फिर ब्रह्मा जी पधारे और इन्हें इसी पंक्ति को आधार बना कर सबसे उत्तम चरित्र वाले श्री राम को चरित्र नायक मान कर रामायण लिखने को कहा।
महर्षि बाल्मीकि ने रामायण की रचना इस प्रकार की।
महर्षि वाल्मीकि के अद्भुत् काव्यशिल्प एवं अनान्य महत्ता में उनकी तपस्या ही हेतु है ।उनका मत है-
तपःस्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदांवरम्॥
इसीलिए वाल्मीकिरामायणवाल्मीकि रामायण का आरम्भ तप शब्द से होता है ।तप के प्रभाव को ये सर्वश्रेष्ठ मानते हैं ।पुनः नामजप की महत्ता प्रतिपादित करते हैं जंगलों में इन्होने महर्षियों को जप में लीन देख था ,जप के प्रभाव से ही ये महर्षि बने थे -
उलटा नाम जपत जग जाना ।
वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना ॥
संगति के प्रभाव से एक ब्राह्मण कुमार डाकू बनता है, ब्याधा बनता है और नामजप -कर्म की करुणा से महर्षि बनता है।
महाराज युधिष्ठिर के अनुरोध पर महर्षि व्यास ने भी एक रामायण की रचना की थी ,परन्तु यह कोई स्वतंत्र रचना नहीं है ।यह वाल्मीकि रामायण पर लिखी गई व्याख्या मात्र है जो रामायण तात्पर्य दीपिका नाम से प्रकाशित है ।इसकी हस्तलिपी प्रति अभी भी प्राप्य है ।
A curious Ms is that of Ramayna Tatprya Dipika which is said to havebeen anexposition of the meanig of the Ramayana by Vyasa at the request of Yudhishthira.
-study of Ramayana,Riddler of Ramayana by K S Ramashstri,book ii page 1
संगति के प्रभाव से एक ब्राह्मण कुमार डाकू बनता है, ब्याधा बनता है और नामजप -कर्म की करुणा से महर्षि बनता है।
रामायण की ज्योतिष शिक्षा पर विचार करें तो आज भी वे पूरणतः प्रासंगिक लगते हैं ।श्री राम के अयोध्या से प्रस्थान के समय चक्रवर्ती श्री दशरथ जी कहते हैं कि नौ ग्रहों जमा होना राज्य के लिए वाधक होता है -
अवष्टब्धं च मे राम नक्षत्रं दारुणग्रहैः।
आवेदयन्ति दैवज्ञाः सूर्याङ्कार कराहुभिः॥
मेरे जन्म नक्षत्र को सूर्य,मङ्गल और राहू नामक भयंकर ग्रहों ने आक्रांत कर लिया है ।
प्रायेण च निमित्तानाभीदृशानां समुद्भवे।
राजाहि मृत्युमा्प्नोति घोरांचापदमृच्छति॥
ऐसे अशुभ लक्षणों के प्राकट्य होने पर प्रायःराजा घोर आपत्ति में पड़ जाता है और अन्ततोगत्वा उसकी मृत्यु हो जाती है।
अशोक वाटिका में त्रिजटा का अपना स्वप्न सुनाना-
उवाच वचनं काले त्रिजटा स्वप्नसंस्थिताम्।
गजदन्तमयीं दिव्यां शिविकामन्तरिक्षगाम्॥
युक्तां बाजिसहस्रेण स्वयमास्थाय राघवः।
शुक्लमाल्याम्बरधरो लक्ष्मणेन समागतः॥
वा रा -सु काण्ड 27।9-10
इसीतरह आगे के 41 श्लोकों में शकुन-अपशकुन का विचार किया गया है ।
रक्तवासाः पिवन्मतः करवीरकृतस्रजः।
विमानात् पुष्पकादद्य रावणः पतितः क्षितौ॥
वा रा -सु काण्ड 27।23
इसके आधार पर शकुन के क्षेत्र निर्धारित किए गए हैं-
हाथी पर शवारी करना,श्वेत फूलों की माला एवं श्वेत वस्त्र धारण करना,चन्द्र एवं सूर्य को देखना,देवी-देवताओं को देखना, ये सब शकुन के लक्षण
हैं ।
आदित्यमण्डलं वापि चन्द्रमण्डलमेव वा ।
स्वप्ने गृह्णाति हस्ताभ्यां राज्यं सम्प्राप्नुयान्तहत्॥
जो स्त्री या पुरुष अपने दोनो हाथों से सूर्य या चन्द्रमण्डल को छू लेता है,उसे विशाल राज्य की प्राप्ति होती है ।
रामायणभूषण-गोविन्दराज विरचित
वहीं माथा मुड़ाए तेल लगाते देखना,लाल वस्त्र पहने,लाल फूलों की माला पहने देखना,वाहन से गिरना,काला कपड़ा पहनना,गधे की सवारी करना ,पुनः उससे गिरना ,अपने को नग्न देखना ,दक्षिण दिशा में जाना आदि अपशकुन बताए गए हैं ।
आगे बताते हैं-
गवां पयांसि स्कन्नानि विमदा वरकुञ्जराः।
गायों का दूध सूख गया है,बड़े-बड़े गजराज मद रहित हो गए हैं।
वा रा -यु काण्ड 10।17
वायसाः संघसः क्रूरा व्याहरन्ति समन्ततः।
खर शृंगाल बोलहिं प्रतिकूला।
वा रा- यु काण्ड 10।19
रामप्रभु का अयोध्या से प्रस्थान के समय लंका में होने वाले अपशकुन का वर्णन,
जोइ जोइ अवध सगुन सुभ होई।
लंकहि भयउ


रावण की ध्वजापर नर-मुण्ड-कपाल का होना उसकी तंत्र साधना को दर्शाता है ।
स तत्राग्निं समासतीर्य शरपत्रैः सतोनरैः।
छगस्य कृष्णवर्णस्य गलं जग्राह जीवितः॥
उसने वहाँ तोमर रहित शस्त्ररुपि काश के पत्तों को अग्नि के चारोओर फैलाकर जीवित बकरे के गले को पकड़ा ।
वा रा -यु -73।24-28
तजि स्रुतिपंथ बाम पथ चलहीं।
रा च मानस-अयोध्या ।168-।7-8
कौल कामवश कृपिन बिमूढ़ा।
रा च मानस-लंका काण्ड
आयुर्वेद द्वारा चिकित्सा का अनुपम व्याखान मिलता है-
श्री राम के आग्रह पर वैद्य सम्राट सुषेण द्वारा महावीर परन्तु युद्ध में वाणों से बिंधे हुए लक्षमण की चिकित्सा की गई।
लक्ष्मणाय ददौ नस्तः सुषेण परमौषधम्॥
स तस्य गन्धमाघ्राय विशल्यःसमपद्यतः।
तदा निर्वेदनश्चैव संरुढ़व्रण एव च ॥
वा रा -यु-91।24-25
उसकी गन्ध सूघते ही लक्ष्मण के शरीर से सभी वाण निकल गए एवं सभी घाव स्वयं भर गए।
राजनीति की शिक्षा- विभिषण श्री राम प्रभु से मिलने आते हैं ,उस समय सभी बानर भालुओं से वे राय मांगते हैं । सुग्रीव ने कहा -प्रभु,वह शत्रु का भाई है ,पता नहीं क्यों हमारी सेना में प्रवेश करना चाहता है ।जैसे उल्लू समय पाकर कौओं का वध कर देता है ,वैसे ही सम्भव हो वह हमें मार डाले ।वह प्रकृति से राक्षस है ।यह नीति है कि मित्र की भेजी हुई,मोल ली हुई तथा जंगली जातियों की भी सहायता ग्राह्य है पर शत्रु की सहायता सदा शंकनीय है ।अगद ने भी इसकी पुष्टी की ।जाम्बन्त जी ने कहा -अदेशकाल में आया देख बड़ी शंका हो रही है ।धरम ने कहा कि इसपर गुप्तचर छोड़ा जाए।गयन्द ने कहा -इससे प्शन-प्रतिप्रश्न किए जाएँ जिससे घबरा कर सत्य आ जाएगा ।परन्तु ह्महावीर हनुमान ने कहा-प्रभो! आपके समक्ष वृहस्पति का भाषण भी तुक्ष है । आपकी आज्ञां ही शिरोधार्य है ।इसपर गुप्तचर क्या लगाएँगे,इसका कुल खानदान सब तो जान रहे हैं ।
वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड का तिरसठवाँ सर्ग राजनीति शिक्षा के लिए अवलोकनीय है ।
गोस्वामी जी कहते हैं-सचिव वैद गुरु तीनि जो प्रिय बोलहीं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइहिं बेगिहि नास॥
रा च मानस-सुन्दर काण्ड
वस्तुतः काव्यविधि से कान्तासस्मित वाल्मीकि का यही दार्शनिक उपदेश है । लेखक अखिल भारतीय मगही प्रचारनी सभा के राष्ट्रीय सभापति हैं ।
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