सर्दियों की धूप
आ पहुॅंची है शरद ऋतु ,सुंदर सर्दियों के धूप हैं ।
सुंदर सुहाना सा मौसम ,
धूप मधु सम अनूप हैं ।।
रवि हुए शाक सा मधुर ,
वैसा ही मधुर आज धूप ।
नहीं रहीं रवि की ये गर्मी ,
नहीं रवि ग्रीष्म का भूप ।।
रवि तो आज भी वही है ,
वही है आज इसका धूप ।
न सूर्य अग्नि का अंगारा ,
न ताप सूखा गहरा कूप ।।
थोड़ी पीड़ित करता सर्दी ,
सर्दी ही धूप को नचा रहा ।
अंगारे बरसाया था ये धूप ,
वह धूप सर्दी से बचा रहा ।।
बना था जो अग्नि ज्वाला ,
भयानक बना था जो रूप ।
सख्त धूप हुआ मुलायम ,
आज के सर्दियों के धूप ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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