पुरुष
पुरुषों की है बात निराली,रहते हैं वे कभी न खाली ।
कभी बच्चे तो कभी पत्नी की,
करते तो हर ख्वाहिश वे पूरी।
माता-पिता की देखभाल की,
उन पर रहती है जिम्मेदारी ।
घर की जरूरतें पूरी करने की,
रहती उनपर दबाव भी भारी ।
अपने कष्टों को नजर अंदाज कर,
परिवार के कष्टों की चिंता करते।
घर-समाज की जिम्मेवारियों को,
तन्मयता से निर्वहन वे करते ।
सुख-दुःख की परवाह किए बिन ,
हर बोझ को वे हंसकर सहते।
ठिठुरती ठंड को या तपती गर्मी,
ना अपने कर्म से वो पीछे हटते ।
बाहर की क्या बात करें हम,
घर के कामों में भी हाथ बंटाते ।
सुरेन्द्र कुमार रंजन
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