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गीता सुगीता

गीता सुगीता

मार्कण्डेय शारदेय:
जीवन स्वयं रहस्यमय है।इसके रहस्यों का मन्थन सदा से चलता रहा।व्यक्ति-व्यक्ति अपनी शक्ति से यथासम्भव मथता रहा।किसने कितना, क्या पाया; यह प्रश्न नहीं।जो भी मथानी उठाए रहे, चलाते रहे, उन्हें भौतिकता का रस कुछ-कुछ बेस्वाद लगने लगा और आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने लगे।माया-मोह के लबादे में ढँके पड़े जीव को जब-जब कोई अनहोनी दीखती है, तब-तब उसके भौतिक भवन भर्भराने लगते हैं।अगर तत्काल कोई आसक्ति का लेप नहीं लगाया जाए तो विरक्ति ही संगिनी हो जाए।
हम हमेशा चाहते हैं कि कम समय, कम परिश्रम एवं कम खर्च में अच्छी-अच्छी चीजें उपलब्ध होती रहें।जीवन-रहस्य के क्षेत्र में भी ऐसी माँग हो तो गीता से बढ़कर क्या है? मात्र सात सौ श्लोकों, अठारह अध्यायों तथा तीन काण्डों का यह संकलन अद्वितीय, अनुपम व अपूर्व है।इसकी प्रशस्ति में मर्मज्ञों ने बहुत कुछ कहा है, आज भी कहते जा रहे हैं।इसके पाठ, अनुष्ठान, मनन से कितनों का जीवन धन्य हुआ, बही-खाते का विषय नहीं।भारतीयता की पहचान के लिए कोई एक पुस्तक पटल पर रख देनी हो तो गीता ही पर्याप्त है।यहाँ विश्वमानवता के लिए पूरी जीवन-पद्धति है, जो अन्धकार से प्रकाश में ले जाने में समर्थ है।
धर्म की एक परिभाषा है- ‘यतोsभ्युदय-निःश्रेयस-सिद्धिः स धर्मः’; अर्थात् जिसे अमल में लाने से इस जीवन में उन्नति हो और जीवन के बाद उत्तमलोक की प्राप्ति हो।इसके लिए कर्म प्रथम है। लेकिन कर्म करके भी जब उपयुक्त परिणाम नहीं दिखे तो मन पर कुप्रभाव पड़ेगा ही।जब मन कुप्रभावित होगा तो तन व्यथित होगा ही।ऐसे में व्यक्ति टूटता जाएगा।गीता न तो कर्म से विरत होकर घर-परिवार से भागकर जंगल-पहाड़ों पर धुनि रमाने की बात करती है और न खेतों में बीज बोकर बड़े-बड़े सपने सँजोने की ही।उसे निकम्मा बनाना होता तो युद्धभूमि में मोहग्रस्त अर्जुन को हथियार उठाने को क्यों बाध्य करती? वह कर्मयोग और संन्यास में कर्म को ही श्रेष्ठ क्यों मानती- ‘कर्मयोगो विशिष्यते’ (5.2) ?
वस्तुतः फल के लोभ में किया जानेवाला काम हमेशा सुखद नहीं होता।फिर तो प्रतिकूल परिणाम धराशायी कर ही देगा।इसीलिए गीता ने शास्त्रविहित कर्म करने की बात तो की है, परन्तु फलासक्ति से दूर रहने की भी बात की है।यानी; स्वधर्म का लाभ-हानि, ईर्ष्या-द्वेष, मान-अपमान से दूरी बनाकर निष्काम पालन ही अकर्म है।वहीं शास्त्रसम्मत होने पर किसी क्रिया में स्वार्थ से घिर जाना विकर्म है।
कर्म में अनासक्ति के बिना ईश्वर में अनुरक्ति सम्भव नहीं।जब कर्म ही पूजा बन जाए तो पूज्य पास ही रहेगा।जब कर्मासक्ति रहेगी तो अहंभाव रहेगा।व्यक्ति स्वयं को कर्ता मान बैठेगा।गीता इसीलिए सहज मन्त्र देती है-
“यत्करोषि यदश्नासि, यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम्”।।(9.27)
अर्थात्; हम खाएँ, पीएँ, हवन करें, दान करें, व्रत-उपवास (परिश्रम) करें, परन्तु सब कुछ प्रभु को अर्पित कर दें।यानी; सदा यही भाव रखें कि मैं नहीं वह खा रहे हैं, पी रहे हैं, दे रहे हैं.....।कर्म जब अकर्म की सीढ़ी पर चढ़ता चला जाए तो उपासना स्वतः हो जाएगी।फिर; सहज उपासना ज्ञान की ऊँचाई पर पहुँच ही जाएगी।यही तो गीता का उद्देश्य है।जहाँ आदि में (प्रथम छह अध्याय) कर्म का पाठ पढ़ाती है, वहीं मध्य (7 से 12 अध्याय) में उपासना का तथा अन्त (13 से 18 अध्याय) में ज्ञान का।
सच तो यह है कि लोक में दो ही मार्ग मुख्य रहे व हैं।कर्म का और ज्ञान का।ज्ञानमार्ग कठिन होता है।इसलिए भक्तिमार्ग सेतु का काम करता है।इसमें भी सरल है शरणागति, प्रपन्नता।इसीलिए भगवान कहते हैं-
“सर्वान् धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच”।।(18.66)
यानी; कर्म के ऊहापोह में न पड़कर मेरी शरण में आ जा।मैं तुझे कर्मजन्य बन्धनों से अलग कर मोक्ष प्रदान कर दूँगा।
सम्भवतः भक्ति की और निःश्रेयस-सिद्धि का सर्वोत्तम पुरस्कार है यह।गीता के प्रवक्ता का हम संसारीजनों के लिए यह महौषधि है।सारतः हमें सदाचार-पूर्वक कर्तव्य-निर्वाह करते चलना है।हम सफल रहे या निष्फल, मलाल न हो (कर्मण्येवाधिकारः)।प्रत्येक कार्य ईश्वरीय मानें तो परिणाम भी उसी का हो जाता है।(‘सांस्कृतिक तत्त्वबोध’ से)
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