एक देश एक चुनाव” लागू होने पर कई राज्यों के कार्यकाल घटेगा
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |
केन्द्र सरकार ने शीतकालीन सत्र में 129वें संशोधन विधेयक के रूप में दो विधेयक संसद में पेश कर दिए गए हैं। एक विधेयक एक राष्ट्र एक चुनाव को लेकर है और दूसरा केन्द्र शासित प्रदेशों के चुनाव एक साथ कराने के लिए संविधान में संशोधन से संबंधित है। संविधान संशोधन के लिए दोनों सदनों में सत्तापक्ष को दो तिहाई बहुमत नहीं मिल पाया और स्वाभाविक रूप से दोनों विधेयक पारित नहीं हो सके। बिल को पेश करने को लेकर संसद में पहली बार इलेक्ट्रॉनिक मशीन से वोटिंग हुई, जिसमें 269 बोट ही सरकार के पक्ष में पड़े जबकि विरोध में 198 वोट पड़े। अब सरकार ने इन विधेयकों को संयुक्त संसदीय समिति के पास समीक्षा के लिए भेजने का फैसला किया। अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो वर्ष 2034 से पूरे देश में एक साथ चुनाव कराए जाएंगे। एनडीए सरकार एक देश-एक चुनाव को 2029 से पहले पूरी तरह धरातल पर उतारने की तैयारी में है।
वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर लोकसभा सचिवालय ने संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) गठित कर दिया है, जिसमें लोकसभा से 27 सदस्य और राज्यसभा से 12 सदस्य शामिल हैं। समिति के अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी के सांसद पीपी चौधरी नियुक्त हुए हैं। समिति में लोकसभा के 27 सदस्यों में अध्यक्ष पीपी चौधरी के साथ, सीएम रेशम, बांसुरी स्वराज, पुरुषोत्तम भाई रुपाला, अनुराग सिंह ठाकुर, विष्णु दयाल राम, भर्तृहरि महताब, संबित पात्रा, अनिल बालुनी, विष्णु दत्त शर्मा, बैजयंत पांडा, संजय जयसवाल, प्रियंका गांधी वाड्रा, मनीष तिवारी, सुखदेव भगत, धर्मेंद्र यादव, छोटेलाल, कल्याण बनर्जी, टी एम सेल्वागणपति, जीएम हरीश, अनिल यशवंत देसाई, सुप्रिया सुले, श्रीकांत एकनाथ शिंदे, शंभावी चौधरी, के राधाकृषणन, चंदन चौहान और बालशौरि वल्लभनेनी शामिल हैं। वहीं राज्यसभा से 12 सांसदों जिसमें घनश्याम तिवारी, भुवनेश्वर कलिता, डॉ के लक्ष्मण, कविता पाटीदार, संजय कुमार झा, रणदीप सिंह सुरजेवाला, मुकुल बालकृष्ण वासनिक, सांकेत गोखले, पी विल्सन, मानस रंजन, वी विजयसाई रेड्डी शामिल हैं।
संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) में बिहार के जदयू से राज्यसभा सांसद संजय कुमार झा, भाजपा से लोकसभा सांसद संजय जायसवाल और लोजपा (रामविलास) से लोकसभा सांसद शांभवी चौधरी शामिल शामिल हैं। वहीं समिति में भाजपा के 16, कांग्रेस के पांच, सपा, तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक के दो-दो, शिवसेना, तेदेपा, जदयू, रालोद, लोजपा (रा), जन सेन पार्टी, शिवसेना-यूबीटी, राकांपा (सपा), माकपा, आप, बीज और वाईएसआरसीपी के एक-एक सदस्य शामिल हैं।
एक देश एक चुनाव विधेयक लोकसभा में पेश करने के संबंध में सरकार का कहना है कि एक साथ चुनाव कराना कोई नई अवधारणा नहीं है। देश में पहले यह व्यवस्था थी। इसको लागू करने से देश के विकास की गति तेज होने की पूरी संभावना है। एक साथ चुनाव कराने से सरकार का ध्यान विकासात्मक गतिविधियों और जनता के कल्याण को बढ़ावा देने वाली नीतियों को लागू करने पर केंद्रित रहेगा।
देश में पहले भी लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के पहले आम चुनाव वर्ष 1951, 1957, 1962 और 1967 में एक साथ कराये गए थे। कुछ विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने के कारण वर्ष 1968 और 1969 में यह बाधित हो गया था। चौथी लोकसभा भी समय से पहले भंग कर दी गई थी। इस कारण वर्ष 1971 में नया चुनाव कराना पड़ा। पांचवीं लोकसभा का कार्यकाल आपातकाल की घोषणा के कारण बढ़ा दिया गया था।
राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों को लेकर असमंजस की स्थिति है। वहीं दिल्ली में फरवरी 2025 में, बिहार में नवम्बर 2025 में, तमिलनाडु में अप्रैल 2026 में, पश्चिम बंगाल में अप्रैल 2026 में, असम में अप्रैल 2026 में, केरल में अप्रैल 2026 में, उत्तर प्रदेश में फरवरी 2027 में, उत्तराखंड में फरवरी 2027 में, पंजाब में फरवरी 2027 में, मणिपुर में फरवरी 2027 में, गुजरात में नवम्बर 2027 में, हिमाचल प्रदेश में नवम्बर 2027 में विधान सभा चुनाव होना है, ऐसी स्थिति में इन सभी राज्यों में एक देश एक चुनाव लागू होने पर कार्यकाल घटेगा।
जबकि 'एक देश एक चुनाव' देश के लिए काफी फायदेमंद है। इसमें प्रशासनिक तंत्र और सुरक्षा बलों पर बार-बार पड़ने वाला बोझ कम होगा, चुनावी गतिविधियों में समय की बचत होगी और उस समय को दूसरे उपयोगी कामों में इस्तेमाल किया जा सकेगा। सांसदों और विधायकों का कार्यकाल एक ही होने के कारण उनके बीच भी समन्वय बढ़ेगा।
2014 में एनडीए को सत्ता में आने के बाद से भारतीय जनता पार्टी के लिए यह संशोधन ‘एक देश-एक चुनाव' महत्वाकांक्षी योजना है। अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसके पक्ष में बात कही थी। चुनाव सुधार की दिशा में यह एक बड़ा कदम है।
यह सही है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होंगे, तो बार-बार होने वाले विधानसभा चुनावों के खर्च से बचा जा सकेगा। सरकारी कामकाज बेहतर ढंग से हो सकेगा क्योंकि बार-बार चुनाव आचार संहिता लागू होने के कारण कामकाज प्रभावित होता है। चुनावों में प्रत्याशियों और पार्टियों की तरफ से होने वाला बेतहाशा खर्च पर भी अंकुश लगेगा। एक साथ चुनाव कराने से वित्तीय और प्रशासनिक संसाधनों की एक महत्त्वपूर्ण राशि की भी बचत हो सकती है, साथ ही चुनाव प्रचार में लगने वाला समय भी बच सकता है। एक साथ चुनाव कराने से चुनाव-संचालित नीति निर्माण का प्रभाव कम हो सकता है, जिससे सरकारें अल्पकालिक राजनीतिक लाभों के बजाय दीर्घकालिक योजना और कार्यान्वयन पर ध्यान केन्द्रित कर सकती हैं। चुनाव के दौरान लागू की जाने वाली आदर्श आचार संहिता, विकास परियोजनाओं और नीतिगत निर्णयों में बाधा उत्पन्न कर सकती है। चुनाव आयोग को अभी चुनावों के संचालन के लिए, सरकारी खजाने से बहुत अधिक धन खर्च करना पड़ता है। इस प्रकार चुनावों में समय और धन की हानि होती है।
यह मामला किसी एक दल का नहीं, बल्कि पूरे देश हित में है। भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस राह में बहुत सारी चुनौतियां भी सामने आ सकती है। इनमें सबसे बड़ी समस्या लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल के बीच सामंजस्य स्थापित करने की होगी।
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