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अनावश्यक बज रही है अँधेरे में तालियायाँ‌

अनावश्यक बज रही है  अँधेरे में तालियायाँ‌

डॉ रामकृष्ण मिश्र
अनावश्यक बज रही है  अँधेरे में तालियायाँ‌।
 बहुत परिचित हो गयी हैं रानीतिक  गालियाँ‍।। 

मंदिरोंँ  पर सुगबुगाते  बृद्व  ताले अहर्निश। 
अभी संसद में  चलेंगी  जोर शोर जुगालियाँ।। 

ऊबते से  से दिख रहे हैं थके हारे‌  खंडहर ।   
मूक है   बजती नहीं अब वे पुरानी घंंटियाँ।। 

द्वितीया का चाँद  कैसे निर्दयी हसिया हुआ। 
जेब कतरों ने  जलाई भरी  पूरी  मंडियांँ।। 

आचमन के नाम  गंगाजल मँगाया गया था। 
सफाई के नाम धोई जा रही हैंं नालियाँ।। 

पोथियों की बोरियाँ बच्चों में बाँटी जाएँगी। 
द्रोण- विश्वामित्र से पट  जाएँगी अब बस्तियाँ।। 
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