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पड़ोसी था दोस्त, दुश्मन हो गया।

पड़ोसी था दोस्त, दुश्मन हो गया।

डॉ रामकृष्ण मिश्र
पड़ोसी था दोस्त, दुश्मन हो गया।
तंत्र के आतंक मे बस खो गया।।
जो रहा खुशहाल मेरी मदद से।
बीज नफरत का अचानक बो गया।।
एक ही थे , एक ही था घर हमारा।
कोई वैमत चला , रिशता धो गया।।
शंख तोडे, घंटियों की ध्वनि बदल दी।
आस्था का बिंब सारा ढो गया।।
अब उसे लग रहा आच्छा भिखमंँगी।
दलदली आतंक से जो रो गया।।
ढले दिन अब ठगी के पाखंड के।
 जो फँसा वह कब्र में जा सो गया।।
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